एक रुपये में बीसियों दुनिया खरीदी हैं मैंने
उंगलियों में घुमाकर गड्डों मेंं यूं ही डाल दिया करते थे
तब हर बच्चे की जेब में हर रंग की दुनिया रहा करती थी
नीली, लाल, चटक हरी और बैंगनी दुनिया...
टूटती थी, फूटती थी और खो भी जाती थी
जेबों से ऐसे ही गिर जाती थीं, इतनी थी कि गिनने में कम पड़ जाती थी
मगर फिर भी आसानी से और मिल जाती वैसी ही रंग-बिरंगी दुनिया
वो दुनिया जो हमारे इशारों पर टिकी थी,
एक आंख बंद कर सैकंडों में इधर से उधर पलट दी जाती थी
हम सब रोज अपनी दुनियाएं बदला करते थे
कुछ घंटों के युद्ध में कितने ही मुल्क हार-जीत लिया करते थे
फिर भी अगर माधव को फिरोज की दुनिया का रंग अच्छा लगा तो फिरोज से चार के साथ एक मुफ्त मिल जाती थी
ये सहिष्णुता भी थी।
काश! ये दुनिया कांच के उस कंचे के अंदर दिख रही दुनिया होती
हम सब अपने-अपने रंग अपनी जेबों में रखते
जब मन करता किसी से बदलते
हवा में ऊपर उछालते और वापस लपक लेते
खेलते, कूदते, हंसते, इठलाते...
असल दुनिया की सीमाओं से बेफ़िक्र होते
काश! हम सब उन बच्चों जैसे होते...
काश!...
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