Thursday 30 April 2015

त्रासदी की कहानी, स्थानीय पत्रकार की जुबानी

हर रोज की तरह मैं अपने साथियों के साथ विश्व दर्शन अभियान के ऑफिस में बातचीत कर रहा था, तभी जोरदार झटका लगा। बाहर आकर देखा तो मंजर अलग ही था, वो सब उजड़ चुका था जिसे कुछ देर पहले ही मैं निहार कर अंदर घुसा था। बर्बादी का ऐसा मंजर आंखों के सामने था जिसकी कल्पना भी संभव नहीं, लेकिन वो घटित हो चुका था। माहौल इतना डरावना कि सब स्तब्ध।

बदहवास से लोग खुले आसमान की तरफ भाग रहे थे। सिर से निकलते खून पर हाथ रखकर मैं भी भागा और एक खुली जगह पर सैंकड़ों लोगों के साथ खड़ा हो गया। लगातार आ रहे आफ्टर शॉक हमें हिला रहे थे, हम हिल रहे थे, बाहर से भी और अंदर से भी।

चारों तरफ चीत्कार और क्रंदन की आवाजें ही सुनाई दे रही थींं। फिर एक अजीब से सन्नाटे में सुन पा रहे थे तो सिर्फ सायरनों की आवाजें। शाम होते-होते भूकंप की गंभीरता का अंदाजा हुआ। रात 12 बजे तक वहीं कहीं खुली जगह में बैठे रहे। हिलती-डोलती धरती के बीच ही सुबह हुई। उस हादसे का भयानक मंजर अगली सुबह दिख रहा था। सब कुछ मिट्टी में मिला हुआ।

अस्पतालों के बाहर लाशें और अपनों को ढ़ूढ़ते कराहते हुए लोग। हमारा गर्व धरहरा पता नहीं कितनी जान अपने आगोश में लिए जमींदोज हुआ पड़ा था। दहशत से भरे हुए सैंकड़ों लोग इसी धरहरा के पास खाली पड़ी जमीन पर शरण लिए हुए थे। दूसरे दिन भी मैं और हमारे साथी काठमांडू के शांतिनगर और धरहरा के पास इसी खाली जमीन पर रहे। यहां लोगों में दहशत इस कदर बैठ गई है कि जिनके मकान सुरक्षित भी हैं वो अंदर नहीं जा रहे। मंगलवार तक चार दिन हो गए लेकिन जमीन अभी भी हिल रही है। सोमवार रात 9.30 बजे ही झांपा में 4.0 रियेक्टर के झटके महसूस किए गए। नेपाल के 75 जिलों में से 27 बुरी तरह इस जलजले से प्रभावित हुए हैं। लेकिन इस मुश्किल घड़ी में जिस तरह से भारत सरकार और इंडिया के लोग हमारे साथ खड़े हुए हैं, उसके लिए उनका तहेदिल से शुक्रिया।

जैसा कि फैडरेशन ऑफ नेपाली जर्नलिस्ट के सदस्य नारायण भट्टराई ने बताया।