हम पत्रकार लोग अक्सर हमारे समाज की कई जिंदगियों और
उनमें फैली भयंकर नेगेटिविटी से होते हुए गुजरते हैं। हर दूसरे रोज कुछ न कुछ ऐसा सामने
आता है जो आपको अंदर से हिला देता है। मां-बाप को पीटता बेटा,
बच्चियों से रेप करते चाचा और ताऊ, मर्जी से
शादी करने पर बेटी के गला काटने की खबरों से अटे अखबार, टूटते परिवार और उजड़ते सामाजिक
ताने-बाने के बीच कई लोगों की तबाह होती हुई जिंदगी को इस छोटे
से करियर में थोड़ा बहुत तो देख ही लिया है।
कई बार कई लोग तो बहुत सी उम्मीदों के साथ
निजी समस्याएं लेकर भी ऑफिस तक आ जाते हैं उस वक्त समझ नहीं आता कि इनसे क्या कहा जाए,
बस सुन लेते हैं और फिर अंदर आकर लगभग भूल जाते हैं लेकिन कभी-कभी कुछ अच्छा भी दिखता है और कभी-कभी बहुत अच्छा भी
जो इस सब के बीच कुछ बेहतर होने का संकेत होते हैं। लगता है जो हम खबरों में पढ़ और
देख रहे हैं उसके इतर भी एक अच्छा बेटा और एक सच्चा समाज रह रहा है।
आज रविवार था तो
शेविंग कराने चला गया, बारी के लिए लंबा इंतजार था लेकिन लड़कियों
की ब्यूटी पार्लर और लड़कों के नाई अक्सर कम ही बदला करते हैं इसलिए वहीं खड़े रहकर इंतजार
कर रहा था। तभी सफेद रंग की वैगेनार आकर रुकी, एक लंबा सा सुडौल
और संपन्न सा आदमी गाड़ी से उतरा। कार का दूसरा दरवाजा खोला और फिर जो दृश्य देखे,
मैं भावुक हो गया। एक बेहद खूबसूरत सा बूढ़ा आदमी जो कांप रहा था,
सिर पर ऊन की बनी टोपी रखे अपने बुढ़ापे की चाल से अपने उस जवान बेटे
से कांपती आवाज में पूछ रहा था, दुकान कहां है? इनके पैर लगभग जवाब दे चुके थे लेकिन चेहरे पर चांदी सी चमकती दाढ़ी और चिकनी
नाक के ऊपर उन धंसी हुई आंखों में मैं इस आदमी में जिंदगी के लिए जबरदस्त आत्मविश्वास
देख पा रहा था। इधर ही है बाउजी, आप रुको मैं लेकर चल रहा हूं ना। 5 कदम की दूरी को नापने में इन्हें 2 मिनट
तो लगे ही और उस छोटी सी दुकान में जाकर दोनों बैठ गए। फिर उन दोनों के बीच जो बातचीत
हो रही थी उसे मैं उनकी नज़रों से बचकर सुनने की कोशिश करने लगा पर मन नहीं माना और
पूछ लिया, आपके फादर हैं? उन्होंने मेरी
ओर बिना देखे कहा, हां और फिर से उस बुजुर्ग के साथ बातों में
मशगूल हो गए। उनकी बातें सुन कर लगा मानो एक दोस्त अपने नासमझ दोस्त के साथ बैठा हो
और उसकी हर बात को इतनी गंभीरता से सुन रहा है कि अगर उसकी बात नहीं मानी गई तो वो
रूठ जाएगा और अपनी शेविंग नहीं कराएगा।
देखो तो ये कौनसा अखबार है, बताओ मुझे,
राजस्थान पत्रिका है और क्या लिखा है इस पर? यार दिख नहीं रहा क्या मेट्रिमोनियल
लिखा है, होठों पर लार आने से पहले ही वो जवाब दे रहे थे। जब-जब वह बीच-बीच में थूकते तभी बेटा प्रताप अपना हाथ आगे
बढ़ा देता, बाउजी यहां मत थूको दूसरे की दुकान में बैठे हैं हम,
अरे! तो मैं तो नीचे ही तो थूक रहा हूं,
अच्छा और नीचे थूक दूंगा…। नहीं बाउजी,
ऐसे थूकते नहीं हैं, अच्छा नहीं है ना..!
उनकी उम्र 85 से ज्यादा थी, बारी मेरी थी लेकिन पहले उन्हें बिठा दिया, कोई पुण्य
नहीं था क्योंकि मैं उस बेटे प्रताप से बातचीत का बहाना ही ढूंढ़ रहा था। बातचीत शुरू
हुई तो पता चला कि प्रताप जी के पिता यानी वो इंसान जो शेविंग के लिए नाई की कुर्सी
पर कांपते हुए बैठे हैं पाकिस्तान से आए थे महज 14 साल की उम्र में अपने पिता के
साथ। 1951 में जयपुर आए और पुलिस में भर्ती हो गए।
बोले, मेरी
अच्छी खासी नौकरी थी, मुंबई ट्रांसफर हुआ तो नौकरी छोड़ दी और
उसमें एक वजह इनकी देखभाल की भी थी। हालांकि मैं ज्यादा कुछ नहीं करता मेरी मां ही
इनका ख्याल रखती हैं। मेरे पिता से थोड़ी बहुत कम उम्र के प्रताप उस वक्त एक मासूम से बेटे की तरह सब बता रहे थे, यार बुजुर्गों
को कुछ नहीं चाहिए होता, इन्हें कैसा भी खाने को दे दो, खा लेंगे। कैसा भी पहनने को दे दो, पहन लेंगे। बस एक बात जो ये हमसे चाहते हैं कि इनसे कोई बात करे बस। जो ये बोलें इनकी हां में हां करने वाला कोई सामने हमेशा बैठा हो।
देख लो इनके दिमाग में एक बात फिट हो गई है मंदिर में कीर्तन वालों को ठीक
जगह न देने की तो सुबह से ही रट रहे हैं उस बात को। अब अगर मैं नहीं सुनूंगा तो
ये नाराज हो जाएंगे और इन्होंने भी तो बहुत मेहनत की है ना हमारे लिए तो….।
इतनी देर में बाउजी की शेविंग हो चुकी थी, बेटा प्रताप बोले, आप तो हीरो बन गए, मैं भी बोला, बाउजी स्मार्ट लग रहे हो…कांपती आवाज बोली क्या…? बाउजी आप अच्छे लग रहे
हैं…अच्छा… और फिर मेरे कंधे पर शाबाशी के अंदाज में हाथ रखा, हर बार की तरह भावुक
हूं तो थोड़ा हो गया वाली फीलिंग आई और मैं उसी कुर्सी पर जा बैठा जहां कुछ पल पहले
एक 85 साल का खूबसूरत और बेहतरीन इंसान बैठा हुआ था।