Thursday 31 December 2015

जैसा आज था नया साल साल भर ऐसा ही हो

सब खुश हैं। तमाम तरह के मुंह बनाते हुए सेल्फी वाले हैं तो कोई फैमिली टाइप का कैमरा लिए बस इस वक़्त को खुद की कैद में करना चाह रहा है। बहुत अच्छा-अच्छा लग लग रहा है। अच्छा इसलिए क्योंकि आज की शाम वैसी शाम नहीं है जैसी 30 दिसम्बर की हुआ करती है। आज वो लड़का खुलेआम अपनी गर्ल फ्रेंड की बाहों में बाहें डाले घूम पा रहा था, सैंकड़ों लोगों के सामने उस दूसरे लड़के ने अपने साथ की लड़की की कमर में हाथ डालकर चुपके से चूम भी लिया, ग्रुप में बहुत से लड़कों के साथ बैठी इक्की-दुक्की लड़कियों को आज कोई घूरता हुआ दिखाई नहीं दे रहा और ना ही चलते हुए गालियां और लड़कियों पे फब्तियां कसते हुए वही कूल डूड! और वो नई सी डस्टर गाड़ी में स्वेटर के ऊपर पुराना सा कोट पहने जोड़े में बैठे झुर्रियों वाले हाथ, पॉपकॉर्न लिए मुस्कुराते हुए बहुत खूबसूरत लग रहे हैं ना!

हाथ में कई सारे गुलाब लिए गंदे से धोती-कुर्ता, पांव में जयपुरी जूतियां और सर पे लहरिया साफा बांधे हुए उस आदमी ने किसी की झिड़की नहीं खाई है शायद! यहां गुलाब बेचते-बेचते सबको सर कहना सीख लिया है उसने। आज सिर्फ 30 रुपए का है ले लो सर। नहीं भाई बहुत महंगा दे रहे हो और वो कपल चलने लगा, अच्छा 20 दे जाओ पर शायद उन्होंने सुना नहीं, एक हाथ से साफे को संभालता हुआ वो उनकी तरफ ऐसे दौड़ा मानो नए साल का पहला तोहफा कोई चुपके से इसके साफे में छुपा कर रख जाएगा सेंटा की तरह! सच में सब बहुत खुश ही हैं और पॉजिटिव भी।

अच्छा है ऐसे जश्न होते रहने चाहिए ताकि हम एक बदलता हुआ समाज भी देख सकें। बिना जान पहचान   वाले लोगों से गले मिल सकें। उन आंखों में सबके लिए प्यार दिखे जो बाकी दिनों में सीसीटीवी बनी घूमती हैं। प्यार करने का इतना सा स्पेस मिल सके जो सेनाओं के कारण और दिनों में संभव नहीं हो पाता। बस सब ऐसे ही खुश रहें और प्यार करें। नए साल की शुभकामना।

Thursday 24 December 2015

कविता: तुम जानती ही हो क्यों?


थक सा जाता हूं रोज एक सा काम कर के
सुन्न सा हो जाता है दिमाग और पक जाता हूं आत्ममुग्धता से भरी लोगों की बातें सुनकर
कभी-कभी मैं भी हो जाता हूं शामिल उनमें
…और जब सब कुछ हो जाता है दिखना बंद
तब देखता हूं मोबाइल में संभाल कर रखी तुम्हारी तस्वीरों को
देखता हूं हर घंटे बदलते वाट्सएप स्टेटस और प्यारी-प्यारी डीपी
फिर एक हूक सी उठती है और मैं महसूस करने लगता हूं उन नर्म उंगलियों के स्पर्श को जो तुमने मेरे सिर में फेरी थीं उस रोज भरी जून की दोपहरी में
मन करता है फिर लेट जाऊं वैसे ही तुम्हारी गोद में और याद करूं उस अद्भुत अहसास को जो उस रोज हुआ
ताजा सा हो जाता हूं और फिर से लग जाता हूं उसी काम पर जिसे रोज करता हूं
नहीं होती फिर कोई थकान और अच्छी लगने लगती हैं लोगों की आत्ममुग्धता भरी बातें
उस अहसास को याद कर अच्छा लगता है और पिघल जाता है जमा हुआ सुन्न दिमाग
तुम जानती ही हो क्यों?

तुम्हारी जाति क्या है कुमार अंबुज?


तुम्हारी जाति क्या है कुमार अंबुज?
तुम किस-किस के हाथ का खाना खा सकते हो
और पी सकते हो किसके हाथ का पानी
चुनाव में देते हो किस समुदाय को वोट
ऑफिस में किस जाति से पुकारते हैं लोग तुम्हें
जन्मपत्री में लिखा है कौन सा गोत्र और कहां ब्याही जाती हैं
तुम्हारे घर की बहन-बेटियां
बताओ अपना धर्म और वंशावली के बारे में
किस मस्जिद किस मंदिर किस गुरुद्वारे में किस चर्च में करते हो तुम प्रार्थनाएं
तुम्हारी नहीं तो अपने पिता
अपने बच्चों की जाति बताओ
बताओ कुमार अंबुज
इस बार दंगे में रहोगे किस तरफ
और मारे जाओगे
किसके हाथों?

Sunday 13 December 2015

हां, बुजुर्ग यही तो चाहते हैं...


हम पत्रकार लोग अक्सर हमारे समाज की कई जिंदगियों और उनमें फैली भयंकर नेगेटिविटी से होते हुए गुजरते हैं। हर दूसरे रोज कुछ न कुछ ऐसा सामने आता है जो आपको अंदर से हिला देता है। मां-बाप को पीटता बेटा, बच्चियों से रेप करते चाचा और ताऊ, मर्जी से शादी करने पर बेटी के गला काटने की खबरों से अटे अखबार, टूटते परिवार और उजड़ते सामाजिक ताने-बाने के बीच कई लोगों की तबाह होती हुई जिंदगी को इस छोटे से करियर में थोड़ा बहुत तो देख ही लिया है। 

कई बार कई लोग तो बहुत सी उम्मीदों के साथ निजी समस्याएं लेकर भी ऑफिस तक आ जाते हैं उस वक्त समझ नहीं आता कि इनसे क्या कहा जाए, बस सुन लेते हैं और फिर अंदर आकर लगभग भूल जाते हैं लेकिन कभी-कभी कुछ अच्छा भी दिखता है और कभी-कभी बहुत अच्छा भी जो इस सब के बीच कुछ बेहतर होने का संकेत होते हैं। लगता है जो हम खबरों में पढ़ और देख रहे हैं उसके इतर भी एक अच्छा बेटा और एक सच्चा समाज रह रहा है। 

आज रविवार था तो शेविंग कराने चला गया, बारी के लिए लंबा इंतजार था लेकिन लड़कियों की ब्यूटी पार्लर और लड़कों के नाई अक्सर कम ही बदला करते हैं इसलिए वहीं खड़े रहकर इंतजार कर रहा था। तभी सफेद रंग की वैगेनार आकर रुकी, एक लंबा सा सुडौल और संपन्न सा आदमी गाड़ी से उतरा। कार का दूसरा दरवाजा खोला और फिर जो दृश्य देखे, मैं भावुक हो गया। एक बेहद खूबसूरत सा बूढ़ा आदमी जो कांप रहा था, सिर पर ऊन की बनी टोपी रखे अपने बुढ़ापे की चाल से अपने उस जवान बेटे से कांपती आवाज में पूछ रहा था, दुकान कहां है? इनके पैर लगभग जवाब दे चुके थे लेकिन चेहरे पर चांदी सी चमकती दाढ़ी और चिकनी नाक के ऊपर उन धंसी हुई आंखों में मैं इस आदमी में जिंदगी के लिए जबरदस्त आत्मविश्वास देख पा रहा था। इधर ही है बाउजी, आप रुको मैं लेकर चल रहा हूं ना। 5 कदम की दूरी को नापने में इन्हें 2 मिनट तो लगे ही और उस छोटी सी दुकान में जाकर दोनों बैठ गए। फिर उन दोनों के बीच जो बातचीत हो रही थी उसे मैं उनकी नज़रों से बचकर सुनने की कोशिश करने लगा पर मन नहीं माना और पूछ लिया, आपके फादर हैं? उन्होंने मेरी ओर बिना देखे कहा, हां और फिर से उस बुजुर्ग के साथ बातों में मशगूल हो गए। उनकी बातें सुन कर लगा मानो एक दोस्त अपने नासमझ दोस्त के साथ बैठा हो और उसकी हर बात को इतनी गंभीरता से सुन रहा है कि अगर उसकी बात नहीं मानी गई तो वो रूठ जाएगा और अपनी शेविंग नहीं कराएगा। 

देखो तो ये कौनसा अखबार है, बताओ मुझे, राजस्थान पत्रिका है और क्या लिखा है इस पर? यार दिख नहीं रहा क्या मेट्रिमोनियल लिखा है, होठों पर लार आने से पहले ही वो जवाब दे रहे थे। जब-जब वह बीच-बीच में थूकते तभी बेटा प्रताप अपना हाथ आगे बढ़ा देता, बाउजी यहां मत थूको दूसरे की दुकान में बैठे हैं हम, अरे! तो मैं तो नीचे ही तो थूक रहा हूं, अच्छा और नीचे थूक दूंगा। नहीं बाउजी, ऐसे थूकते नहीं हैं, अच्छा नहीं है ना..! उनकी उम्र 85 से ज्यादा थी, बारी मेरी थी लेकिन पहले उन्हें बिठा दिया, कोई पुण्य नहीं था क्योंकि मैं उस बेटे प्रताप से बातचीत का बहाना ही ढूंढ़ रहा था। बातचीत शुरू हुई तो पता चला कि प्रताप जी के पिता यानी वो इंसान जो शेविंग के लिए नाई की कुर्सी पर कांपते हुए बैठे हैं पाकिस्तान से आए थे महज 14 साल की उम्र में अपने पिता के साथ। 1951 में जयपुर आए और पुलिस में भर्ती हो गए। 

बोले, मेरी अच्छी खासी नौकरी थी, मुंबई ट्रांसफर हुआ तो नौकरी छोड़ दी और उसमें एक वजह इनकी देखभाल की भी थी। हालांकि मैं ज्यादा कुछ नहीं करता मेरी मां ही इनका ख्याल रखती हैं। मेरे पिता से थोड़ी बहुत कम उम्र के प्रताप उस वक्त एक मासूम से बेटे की तरह सब बता रहे थे, यार बुजुर्गों को कुछ नहीं चाहिए होता, इन्हें कैसा भी खाने को दे दो, खा लेंगे। कैसा भी पहनने को दे दो, पहन लेंगे। बस एक बात जो ये हमसे चाहते हैं कि इनसे कोई बात करे बस। जो ये बोलें इनकी हां में हां करने वाला कोई सामने हमेशा बैठा हो। 

देख लो इनके दिमाग में एक बात फिट हो गई है मंदिर में कीर्तन वालों को ठीक जगह न देने की तो सुबह से ही रट रहे हैं उस बात को। अब अगर मैं नहीं सुनूंगा तो ये नाराज हो जाएंगे और इन्होंने भी तो बहुत मेहनत की है ना हमारे लिए तो….

इतनी देर में बाउजी की शेविंग हो चुकी थी, बेटा प्रताप बोले, आप तो हीरो बन गए, मैं भी बोला, बाउजी स्मार्ट लग रहे होकांपती आवाज बोली क्या…? बाउजी आप अच्छे लग रहे हैं…अच्छा… और फिर मेरे कंधे पर शाबाशी के अंदाज में हाथ रखा, हर बार की तरह भावुक हूं तो थोड़ा हो गया वाली फीलिंग आई और मैं उसी कुर्सी पर जा बैठा जहां कुछ पल पहले एक 85 साल का खूबसूरत और बेहतरीन इंसान बैठा हुआ था।

Saturday 12 December 2015

फोटो भी कभी ब्लॉग बनने चाहिए...

दिवाली

बतख भी उड़ती है

सब कुछ स्टील नहीं है

मैं देख रहा हूं कहीं गाय तो नहीं उड़ रही (जेकेके आर्ट गैलरी)


 हमारे छाते ही अलग होंगे बस हम नहीं...

नाचूं गुलाबो बन के

शहर में गांव का होना

शहर में गांव का होना 2
 
शहर में गांव का होना 3





हुक्का अब कटवारिया, बेर सराय का राष्ट्रीय पुरातन खेल है


चाक का शहर हो जाना


ये अद्भुत है

कबीरा जब मनाली गए

कबीरा जब मनाली गए 2

कबीरा जब मनाली गए 3

कबीरा जब मनाली गए 4

कबीरा जब मनाली गए 5

कबीरा जब मनाली गए 6

कबीरा जब मनाली गए 7


कबीरा मनाली से पहुंच गए अमृतसर

आगरा

साब! ये रात में हमारे लिए जागता है तो दिन में हम इसके लिए, दोनों ही सहिष्णु हैं

सड़क पर भगवान

सोनिया माईं की हथेली खत सी गई है

सरगासूली जब तिरंगा बन गया (जयपुर)

मेरे गांव में कबड्‌डी टूर्नामेंट

निश्छल जल...

गांव की शाम

गांव का मेला

दोस्ती हो तो ऐसी, सड़क पर हुई और खत्म भी सड़क पर होगी

ये अनुभव की लकीरें हैं....

साल 1948 का शादी कार्ड जो हाथ से पेंट किया है और अंदर दहेज न लेने की कसम भी है

जयपुर की शाम
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