Sunday 22 November 2015

मुझे ब्लड कैंसर है तो क्या मैं अछूत हो गया हूं...???



किसी छोटे से बच्चे को आपकी कही कोई बात ऐसी चुभ जाती है जो उसे बेचैन कर देती है। वो सोचता रहता है कि मेरे आसपास का समाज ऐसा क्यों है? 12 साल का कार्तिक क्यों मुझसे कहता है कि यहां लोग अच्छे नहीं हैं? जबकि उसे इस वक्त सबसे ज्यादा हमदर्दी की जरूरत है। 

अजमेर के कार्तिक को ब्लड कैंसर है। एक दिन ऐसे ही अस्पताल के पास मैं अपने साथी गौतम के साथ उससे मिल गया। सभी की तरह हम भी  उसकी बीमारी देख कर थोड़ी सी देर भावुक हुए और वापस ऑफिस आकर काम में मशगूल हो गए। कई दिन निकल गए। हम भी सब की तरह कार्तिक को भूल गए लेकिन वो बच्चा अस्पताल की बेंच और अपने बैड के बीच की दूरी में चलते हुए बहुत कुछ अनुभव कर रहा था। कई दिन बाद गौतम जी को कार्तिक फिर से मिल गया। उनके बीच क्या बात हुई, मैं नहीं जानता लेकिन ऑफिस लौट कर गौतम जी ने कहा कि कार्तिक ने मुझे याद किया है और वो कैंसर मरीजों के लिए एक लेख लिखना चाहता है। शुरूआत में थोड़ी झिझक हुई कि क्या मेरा अखबार में इसके लिए सपोर्ट करेगा, संशय में हमारे संपादक साहब के पास पहुंचा और कार्तिक के बारे में बताया। उन्होंने तुरंत हां कर दी।


अगले दिन ही मैं उस अस्पताल में पहुंच गया। थोड़ी देर बात हुई और फिर वो सुबक-सुबक कर रोने लगा। कुछ ऐसा कि मैं भी अपने तीन साल के करियर में इमोशनल हो गया। मैं नहीं जानता कि कार्तिक की कही बात को अपने शब्दों से कितना आपको समझा पाया हूं, पाया भी हूं या नहीं? पर ये चिंता तो है ही कि हमारा समाज इतना संवेदनहीन कैसे होता जा रहा है? जो एक बच्चे को भी नहीं बख्श रहा। अरे! कार्तिक को ब्लड कैंसर ही तो है, इससे वो अछूत तो नहीं हो गया। क्यों आप अपने बच्चों को उससे बात करने से रोकते हैं ये कहकर कि इससे बात मत करो ये बीमार है। जबकि कार्तिक जब भी किसी से मिलता है मुंह पर मास्क लगा लेता है। खून के लिए दर-ब-दर भटकते उसने अपने परिवार वालों को देखा है, अस्पताल में अपने से गरीब लोगों को खाने के लिए तरसते हुए देखा है। जब उसने पूछा कि एक कतरा खून मिलना इतना मुश्किल क्यों है तो हम सब लाजवाब हो गए उसके इस सवाल पर। सरकार कुछ करती क्यों नहीं इन लाखों बच्चों के लिए जो कैंसर से लड़ रहे हैं? अमीर-गरीब का इतना भेद क्यों है हमारे समाज में? कोई अमीर आदमी किसी गरीब की मदद क्यों नहीं करता? मैं जब बड़ा होकर कॉन्ट्रेक्टर बन जाऊंगा तो इन सब गरीबों की मदद किया करूंगा। इतना कहते ही कार्तिक फूट-फूट कर रोने लगा, ऑडियो रिकॉर्ड करने की मेरी और हिम्मत न हो सकी।

75 साल के उसके दादा भी अपनी झुर्रियों में आंसूओं को छुपाते हुए उसके बचपन को हमारे लिए खोल रहे थे कि किस तरह वो सबसे तेज दौड़ता था, हमेशा 98% से ज्यादा मार्क्स कार्तिक लेकर आता है। बोलते हुए हथेली से आंसू भी पोंछ रहे थे। समझ नहीं आ रहा था वहां कुछ, सबकुछ बिलकुल सन्नाटा जैसा महसूस हो रहा था। मैंने वहां से निकलने की सोची कि शायद इससे इनका रोना बंद हो जाए, हो भी गया। कार्तिक के बहुत से फोटो लिए और ऑफिस आ गया। आ तो गया लेकिन उस बच्चे के सवाल दिल को कचोट रहे हैं, ऐसा समाज बनाने में हमारी कितनी भूमिका है और कितनी भूमिका हमारी राजनीति की? क्यों एक बच्चे को अपनी बीमारी से ज्यादा इस समाज की सोच से लड़ना पड़ रहा है? बस ज़रा सोचिए!

बाकी तो हम सब अपनी मर्जी का करते ही हैं...



कभी-कभी हम वो सब देखते हैं जो जिंदगी में अपने साथ होता हुआ नहीं देखना चाहते। क्यों हम वो समझ नहीं पाते जो हमें बचपन से समझाया जाता रहा है और सही भी है। जो आप कर रहे हैं वो शायद इसलिए आपके लिए गलत ना हो क्योंकि करोड़ों लोग उसी काम को कर रहे होते हैं लेकिन जो गलत है वो गलत हैं चाहे पूरी दुनिया उसी काम को कर रही हो, सही और फैशन मान कर। 

शुरूआत शायद यहीं से होती है रिश्तों के दरकने की, वक्त है संभलने का हो सके तो प्लीज! मैं वो सब नहीं देख पाया, गुस्सा था, अफसोस और अजीब किस्म की दया भी। सिवाय बर्बादी के और कुछ नहीं हो सकता उस रास्ते पर, जहां पर हम कभी निकल जाते हैं बिना सोचे-समझे कोई तर्क और कोई सफाई उस वक्त आपको किसी के सामने खड़ा नहीं कर पाएगी। 

अपने वजूद को पहचानिए और थोड़ा देखिए अपने गुजरे हुए कल की तरफ और फिर सामने देखिए उस रास्ते को जिसे आप संकरा कर रहे हैं अपने लिए और अपने बचे-खुचे सूत से रिश्तों के लिए। बस जो था यही है बाकी तो हम सब अपनी मर्जी का करते ही हैं।