Saturday 13 February 2016

मैं अंधा था अब ठीक हूं इन 'अंधों' की खींची फोटो देखने के बाद



ज़रा सोचिए एक फोटो क्लिक करने के लिए क्या-क्या चाहिए? जाहिर है कैमरा, जगह, फोटोग्राफी सेंस, सब्जेक्ट-ऑब्जेक्ट जैसी तमाम टेक्नीकल बातें और हां फोटो को खोजने-पहचानने वाली आंखें तो जरूर होनी ही चाहिए। लेकिन तब क्या जब फोटो खींचने वाले हम दुनियावी लोगों के लिए अंधे हों? पढ़ाई के अलावा अपने हुनर को भी निखार रहे कोलकाता के ऐसे कुछ दृष्टिबाधित स्टूडेंट्स से आज मिला। इनके क्लिक किए फोटो देखकर यकीन ही नहीं हुआ कि जिन आंखों से हम लोग इतनी गंदगी देख रहे हैं ये स्टूडेंट्स बिना आंखों के ही दुनिया की वो खूबसूरती देख रहे हैं जिसे हम बहुत कम कैद कर पाते हैं। 


सिर्फ 10 दिन की कैमरा से संबंधित ट्रेनिंग के बाद इन्हें कैमरा हाथ में दे दिए गए और फिर इन्होंने कैमरे की आंखों से जो हमें दिखाया वो अद्भुत है। वैसे ये अब बच्चे नहीं रहे लेकिन जवाहर कला केन्द्र में सब इन्हें बच्चे ही कह रहे थे ये शायद हमारे समाज का इस तरह के बच्चों को प्यार करने का अंदाज है। खैर! ये हैं पश्चिम बंगाल के अलग-अलग शहरों से आकर कोलकाता में रह रहे अजन शरेन, मिलन शर्मा, फणि पॉल, दुलाल चंद रॉय और टिंकू हज़रा। इन्हें ये मौका दिया है जयपुर के ही चंदन राठौर और पद्मजा शर्मा ने। आवाज की दिशा से ये अपना फ्रेम तय करते हैं और फिर जो भी फोटो इनके फ्रेम में जकड़ती है वो कमाल की होती है। इनकी हर खींची गई फोटो अपने आप में कहानी है जिससे हर किसी को प्रेरणा लेनी चाहिए। 


मैं अब तक एक सुखद आश्चर्य से भरा हुआ हूं और इनकी तस्वीरें दिमाग में जाकर छप सी गई हैं। मैं नहीं जानता कि ये ऐसा कैसे कर लेते हैं।
मैंने अपना फोटो खींचने की रिक्वेस्ट की तो अजन ने अपना कैमरा अपनी आंखों से ऐसे चिपका लिया मानो इसे लेंस में सब दिख ही रहा हो हां उसे सब दिख रहा था कैमरे की आंखों से। हालांकि वो फोटो अजन के कैमरे में ही है लेकिन उनकी खींची फोटो मेरे पास है। 


ये सब देखने के बाद इतना मन में जरूर आया कि क्या कभी ऐसे स्टूडेंट्स के भविष्य के लिए कोई इस तरह की बहस होगी जैसे इस देश में गाय,बीफ, देशभक्ति और देशद्रोह पर हो रही है? क्या इनके लिए भी कभी जिंदाबाद-मुर्दाबाद के नारे लगेंगे? क्या हर नेता इनके अच्छे-बुरे के लिए कोई बयान देगा? जिस जगह इनके फोटो की प्रदर्शनी लगी थी उस जगह इनके लिए रैम्प भी नहीं हैं और हां ये वही जगह है जहां से कुछ दिन पहले ही गाय की कलाकृति वाली खबर नेशनल न्यूज बनी थी। 

पर मुझे लगता नहीं क्योंकि जब हम राजनीति के एक ऐसे दौर से गुजर रहे हों जहां सब प्रोपेगेंडा हो, पक्षपाती सोची-समझी रणनीति और बहकावे में आकर राजनीति की जा रही हो, जानबूझकर फैलाई गई लड़ाई में सरकारें सीधे दखल दे रही हों और हर उस घटना को थोड़ी समझ रखने वाले लोग भी समझ ना पा रहे हों कि मामला आखिर है क्या? मीडिया के लिए वो बात जिससे मास का मतलब ही नहीं वो देश का सबसे बड़े मुद्दा हो। ऐसे समय में मेरे ये सवाल बेवकूफों वाले ही कहे जाएंगे। 

लेकिन ऐसी ही कुछ ऐसी सामान्य सी घटनाएं मुझे बड़ी लगती हैं और वो सच में बड़ी होती भी हैं क्योंकि वो हमारे बेहतर भविष्य से जुड़ी होती हैं। मीडिया के लिए वो सिंगल-डबल कॉलम में सुलटा दी जाने वाली खबरें होती हैं लेकिन जब हम-आप कुछ ऐसे लोगों से मिलते हैं तो हमारी सारी आशंकाएं धुंधली सी पड़ जाती हैं और लगता है कि एक अच्छा भविष्य हमारी बाट जोह रहा है। 













Monday 1 February 2016

एक उजड़े 'विस्थापित' गांव का हमारे नाम खुला ख़त

आह भरी नमस्कार! मैं उजड़ा हुआ हूं, बेहद परेशान और दरकिनार किया हुआ, अपनों का सताया और भुलाया हुआ भी। उनकी टूटी-फूटी 'बाखरों' का बोझ मैं सहन नहीं कर पा रहा जो मुझे छोड़कर जा चुके हैं, मतलबी लोग! अब बर्दाश्त नहीं होता ये सन्नाटा, दिन में भी झींगुरों की आवाजें और इन टूटी छतों के कोने में बने टूटे हुए चूल्हों में दबी राख!

 बर्दाश्त नहीं होता अब, पैसों के लिए परदेस निकल गए बेटों के 80 साल के मां-बाप की कराह, खाट में ही सब कुछ हो जाना और होते ही रहने के बाद भी उनकी औलाद को पुकार और मेरा उन्हें कराहते हुए सुनना, फिर मैं रोता हूं अपनी बेबसी पर, कहने की कोशिश करता हूं  उन हवेलियों  की दीवारों से लेकिन अब वो भी 'पत्थर' हो गई हैं उन जा चुके लोगों की तरह।

कोई नहीं सुनता तो अपने अतीत में लौट जाता हूं। उन मंदिर की घंटियों में जो अब नहीं बजतीं। लौट जाता हूं परम सागर कुएं की दीवारों से टकराते हुए कलश की छप-छप की आवाजों में जो अब 4 साल से बंद है क्योंकि बारिश नहीं हुई। अपनी उंगलियां फेरता हूं घाटों में रस्सी से बने निशानों में और वापस आ जाता हूं उनके भी आसुंओं से लबरेज़ गीली उंगलियां लिए हुए। चढ़ कर वापस आ जाता हूं उन खरंजों से जो कभी मेरे अंदर तक आने के लिए बने थे।

फिर जाता हूं छोड़कर जा चुके लोगों के खेतों में जहां कुएं भी हैं,पोखर भी और  इंजन भी पर वो भी सब कराह रहे हैं मेरी तरह बिलकुल सूखे और नाउम्मीदगी से भरे हुए। अब उनमें सरसों भी नहीं होती और गेंहू भी नहीं क्योंकि 4 साल से अकाल है लेकिन मैं बीसियों साल से अकाल का मारा हूं। मेरे ही सीने पर सब परेशान हैं मेरी ही तरह बिलकुल अकेले और कराहते हुए। शाम तक ऐसे ही घूमता रहता हूं उदास।
आसपास के गांवों में भी जाता हूं उनकी दास्तां भी मुझसे कुछ अलग नहीं। थक कर आ बैठता हूं किसी टूटी हुई पाटोर (छत) के चटके हुए छज्जे पर। उन्हें देखता हुआ जो अभी बचे हुए हैं कतार के आखिरी, अंतिम से लोग!

सिर्फ दिखते हैं तो बुझे हुए चूल्हे, बिना धूल की गौधूली, शाम को कभी आबाद रहने वाले खाली चबूतरे, माथे पर विकास के नाम लिए आए कभी-कभार टिमटिमाते लट्टू, आंगन में फैला घुटनों तक कचरा और तालों से कसे हुए टूटे हुए दरवाज़े।
दरअसल, विस्थापित सिर्फ लोग नहीं हुए मैं भी हुआ हूं, उनसे ज्यादा जो मुझे याद करने की झूठी कहानियां गढ़ते हैं आपस में मिलने पर। मैं उजड़ा हुआ हूं, दरकिनार किया हुआ और कराहता हुआ...