Wednesday 31 January 2018

अक्सर

अक्सर मुझे कई चीजें बहुत देर से मिलती हैं
कविता, किताब,कहानी या फिर कोई अच्छा इंसान...
जब मैं दूसरों से कहता हूं तुमने वो कविता पढ़ी क्या?
फलां किताब बहुत अच्छी है, वो इंसान तो बहुत ही अच्छा है
सुनकर हँसने लगते हैं लोग खिलखिलाते हुए कहने की कोशिश में.. तुझे अब पता चला है?
तब थोड़ा सहम जाता हूँ मैं और उदास हो जाता हूं अपनी रफ़्तार पर। 
फिर मैं हँसने लगता हूं उन हंसने वालों
पर, थोड़ा गुस्सा भी। 
कितने स्वार्थी हो तुम 
जब बिकती है कोई किताब या चर्चा में होती है कोई कविता
तब तुम सब उसे पढ़कर छोड़ देते हो दराजों में, अकेला हो जाता होगा वो इंसान जो भीड़ से घिरा रहता होता था हर वक़्त
और जब वो हो जाते हैं एकदम अकेले तब 
मैं पहुंचता हूं उन दराजों तक
जमी हुई गर्द झाड़ता हूँ 
बीच में लगे बुक मार्क लगा देता हूं पहले पन्ने पर
तब मुस्कुरा जाती हैं किताबें, कविताएं और वो इंसान
अक्सर...
Madhav 

Sunday 28 January 2018

लड़के

अक्सर हम लड़के कभी किसी से कुछ नहीं सीखते
होते हैं लापरवाह, फक्कड़, अनाड़ी, मनमर्ज और बदतमीज
झेलते हैं बड़ों की झिड़क, गुस्सा और मिलता है ताना
...लेकिन जब कोई लड़का हो जाता है प्रेम में
वो सीखने लगता है
हर्फ़ दर हर्फ़ कुछ लिखने लगता है
समझने लगता है आंखों के इशारे
उंगलियों के स्पर्श से बुनने लगता है कुछ फाहे से सपने
गिनने लगता है अपनी धड़कनों को
सुनने लगता है अपनी सांसों को
लिखने लगता है कविताएं और सजाने लगता है अपनी ज़िन्दगी को
हर लड़का हो जाता है तब बुद्ध सा जब वो प्रेम में होता है।


Tuesday 23 January 2018

दुनिया

एक रुपये में बीसियों दुनिया खरीदी हैं मैंने
उंगलियों में घुमाकर गड्डों मेंं यूं ही डाल दिया करते थे
तब हर बच्चे की जेब में हर रंग की दुनिया रहा करती थी
नीली, लाल, चटक हरी और बैंगनी दुनिया...
टूटती थी, फूटती थी और खो भी जाती थी
जेबों से ऐसे ही गिर जाती थीं, इतनी थी कि गिनने में कम पड़ जाती थी
मगर फिर भी आसानी से और मिल जाती वैसी ही रंग-बिरंगी दुनिया
वो दुनिया जो हमारे इशारों पर टिकी थी,
एक आंख बंद कर सैकंडों में इधर से उधर पलट दी जाती थी
हम सब रोज अपनी दुनियाएं बदला करते थे
कुछ घंटों के युद्ध में कितने ही मुल्क हार-जीत लिया करते थे
फिर भी अगर माधव को फिरोज की दुनिया का रंग अच्छा लगा तो फिरोज से चार के साथ एक मुफ्त मिल जाती थी
ये सहिष्णुता भी थी।

काश! ये दुनिया कांच के उस कंचे के अंदर दिख रही दुनिया होती
हम सब अपने-अपने रंग अपनी जेबों में रखते
जब मन करता किसी से बदलते
हवा में ऊपर उछालते और वापस लपक लेते
खेलते, कूदते, हंसते, इठलाते...
असल दुनिया की सीमाओं से बेफ़िक्र होते
काश! हम सब उन बच्चों जैसे होते...
काश!...