Friday 26 June 2015

सड़क किनारे अखबारों की जाज़म, चार रोजेदार और पांचवा मैं

कोई सुविधा में तो कोई दुविधा में इस शहर की ओर भागा आता है। ज्यादातर दुविधा में ही आते हैं, क्योंकि सुविधा शहर में रहने वाले अभिजात्य वर्ग के पास ही होती है। वो चारों भी दुविधा में ही इस शहर की ओर आ गए। बच्चे बीमार थे जिनका जे.के.लॉन अस्पताल में इलाज चल रहा था।

गुरुवार को मैं भी जे.के.लॉन पहुंच गया था, किसी को लेने। बाइक खड़ी की ही थी कि हेलमेट उतारते ही कुछ एेसा दिखा जो सबसे अलग लगा। तीन शख्स और एक बच्चा ठेर से अखबार पर रखे पपीते और केले खा रहे थे। साथ में नमक और भुजिया नमकीन भी। एक अंकल जैसे शख्स के सिर पर टोपी थी तो तुरंत समझ गया कि मुसलमान हैं और रोजा खोल रहे हैं। मैं समझ गया था फिर भी मन नहीं माना और पूछ लिया, रोजा खोल रहे हैं क्या? चारों ने एक साथ सिर हिलाया, फिर पास बुलाने लगे। मैं ना-नुकुर करता रहा लेकिन वो बुलाते रहे। आखिरकार उनकी ज़िद ने बुला ही लिया। मुझे लग रहा था कि बाहर से आए हैं और एक ही परिवार के हैं। इसलिए साथ बैठकर रोजा खोल रहे हैं। लेकिन वो चारों अलग-अलग गांव से। ना किसी की किसी से दोस्ती और ना ही कोई पहले मुलाकात। अस्पताल के हालातों ने सलाम-दुआ शुरू करवा दी थी बस।


बोले आप भी लीजिए, नहीं मैं तो अभी खाकर ही आ रहा हूं, आप खाइए आपका रोजा है। अरे तो क्या हुआ? लेना ही पड़ेगा एक तो, इस तरह एक केला खाने के साथ पांचवा मैं भी उनमें शामिल सा हो गया। मेरा रोजा नहीं था फिर भी लगा जैसे सुबह से कुछ खाया ही नहीं, उनके प्यार से दिए उस केले में इतनी मिठास थी कि कुछ देर के लिए भूल गया यहां क्यों आया हूं।

बैठ गया और बातचीत करने लगा। उनमें से एक निवाई से बादशाह खान थे तो दूसरे बौंली से अय्युब, अंकल हिम्मत खान अलवर से आए थे। 12-13 साल का लड़का शाहरुख बादशाह जी के साथ था। लेकिन रोजा एेसे खोल रहे थे मानो सालों पुरानी पहचान हो और एेसे ही रोजाना खाना साथ खाते हों। आश्चर्य तो हुआ लेकिन सुखद। मैं इतना ही बोला था कि मुझे तो लगा कि कोई परिवार के लोग ही हैं आप, हिम्मत अंकल बोले, घर से दूर जो काम आए वो परिवार के ही तो होते हैं। अब मेरा और अय्युब का मरीज बादशाह जी की बीवी की देखभाल में है। अनजानी जगह जो इंसानियत से पेश आए वो अपना ही हो जाता है। बेटा तुम पपीता भी तो खाओ, नहीं अंकल केला ही काफी है थैंक्यू।

अच्छा शाहरुख को क्या हुआ है, इसके गले में दिक्कत है, सांस लेने में तकलीफ होती है, खाते-खाते बादशाह जी ने एेसे रिपोर्ट सौंपी जैसे मैं ही डॉक्टर हूं। हिम्मत अंकल अब भी खा रहे थे और बादशाह, अय्युब जी नमाज़ की तैयारी करने लगे, वहीं सड़क किनारे उस लैब की सीढ़ियों पर। जल्दी-जल्दी नमाज़ पढ़ी, जूतियां पहनते हुए बोले, जल्दी चलो खां साब नहीं तो डॉक्टर राउंड से चला जाएगा, नमाज़ का क्या है दो 'सूरत' बाद में पढ़ लेंगे। जाते-जाते मैंने पूछा, काम क्या करते हैं आप, बादशाह बोले, खेती और अय्युब भी कुछ एेसा ही। शाहरूख को लेकर दोनों चले गए। जाते-जाते बोले, एेसी ही इंसानियत से मोहब्बत बनी हुई है मुल्क में। हिम्मत खान थोड़े बूढ़े थे तो पीछे रह गए या शायद उन्होंने पूरी नमाज़ पढ़ी थी। वो नमाज़ पढ़ रहे थे मैं उन्हें बस देख रहा था, आश्चर्य से भरा, अवाक सा। नमाज़ पढ़ते हुए उनकी ये फोटो उतार ली।


नमाज़ पढ़ते हिम्मत खान
फिर लगा डिलीट कर दूं क्योंकि मैंने इनकी एक स्वतंत्रता का हनन कर दिया। मन थोड़ा बेईमान हो गया, डिलीट करने से बेहतर लगा कि उन्हें बता दूं। उनकी नमाज़ पूरी हुई, थोड़ी घबराहट के साथ मैं बोला, जब आप नमाज़ पढ़ रहे थे तो मैंने आपकी ये फोटो ली, आपको बुरा लगा हो तो मैं इसे डिलीट कर सकता हूं। इस वक्त मैं हिम्मत खान जी की आंखों में देख रहा था, उनका एक हाथ मेरे सिर पर था और दूसरा पीठ पर, हल्की सी आवाज में बोल रहे थे, बुरा क्यों लगेगा, जामा मस्जिद की भी तो आती है हर ईद पर। हाथ लगातार मेरे सिर पर ही टिका हुआ था, मुंह से सिर्फ दुआएं निकल रही थीं, मैं भावुक हूं, इसलिए हो गया। समझ में नहीं आ रहा था कि बोलूं क्या, कुछ नहीं सूझा तो अपने नंबर ही दे दिए, अस्पताल में कोई जरूरत हो तो बताना, कुछ डॉक्टर हैं जिन्हें जानता हूं। वो ठीक है कहते हुए सिर से हाथ सरकाते हुए चले गए। सड़क पार करते हुए मैं उन्हें लगातार देख रहा था।

रोजा खोल रहे हैं क्या? जैसे साधारण से वाक्य के साथ शुरू हुई उनसे बातचीत से उनके साथ एक भावनात्मक रिश्ता बनने में बमुश्किल 10 मिनट लगे। कुछ रिश्ते एेसे ही बन जाते हैं जिन्हें जिंदगी में कभी निभाने का मौका हमें नहीं मिल पाता लेकिन वो एक कभी ना भुला पाने वाला किस्सा बनकर हमेशा हमारे साथ रहता है, जैसे मेरी जिंदगी की ये बन गया।

Wednesday 24 June 2015

मनाली में उस रोज की वो खूबसूरत सुबह

आपको कैसा लगता है यहां? मतलब, आप नेपाल से हैं तो मनाली में क्या ऑब्ज़र्ब किया आपने?
पता नहीं क्यों पर मुझे लगता है कि यहां लोग हर वक़्त कुछ ढूंढ़ रहे हैं, क्या है जो उन्हें नहीं मिल रहा, मैं नहीं जानता क्या, पर हज़ारों लोग तभी यहां आ रहे हैं। हमारे लिए खाना बनाते-2 तारा (कैंप में कुक) मनाली में खुद का जीया हुआ हमें बता रहे थे।

कैम्प से कहीं दूर उस ऊंचाई पर
 तारा की बात 200% सही। सब यहां कुछ ढूंढ़ने आ रहे हैं, अपने-अपने हिसाब से लेकर जा रहे हैं लगभग एकसा।
ये सब लिखते-2 पहाड़ के पीछे से वो निकल आया जिसका 1 घंटे से इंतज़ार कर रहा था। पता ही नहीं चला,चला तब जब मेरे सर की परछाईं बगल वाली छत पर दिखने लगी।

कांपते हाथों में गुनगुनाहट सिर में होकर घुसी तो हाथों ने कांपना बंद कर दिया है। टेबल से ओस पानी बन टपकने लगी है, सामने के पहाड़ का झरना अब और सफ़ेद हो गया है, व्यास नदी का सुर थोड़ा धीमा हो गया है और ये तितली भी मस्तानी सी होकर गमले में उगे इस फूल पर आ बैठी है, ठीक पीछे वाली रात में जिए वो पल कैंडल लाइट डिनर वाली टेबल और बोन फायर की राख के साथ सबूत की तरह दिख रहे हैं।

इनके बीच में ही बहती है व्यास नदी
 तारा की बनाई अच्छी वाली एक चाय गटक चुका हूं। पहाड़ी क्यूट बच्चे स्कूल के लिए भी निकल चुके हैं,एक छोटी बच्ची ने एक छोटे बच्चे को पीठ पर लादा हुआ है और दोनों का बैग एक और छोटी बच्ची ने संभाला हुआ है। तरुण (कैंप का मालिक) की मां ने उसी जमी हुई सुबह में ही हमें गांव में जाने का रास्ता बता दिया है, पहाड़ों की ज़िन्दगी का अनुभव अपने चौकोर चेहरे में बन आईं झुर्रियों में समेटे हुए जब उन्होंने गलत रास्ते से हमें ऊपर चढ़ते हुए देखा तो सही वाले 2 रास्ते बता कर गयीं, ये भी कि ऊपर गांव में मंदिर भी है।

ये झरना जो उस छत से उठने ही नहीं देता
 मनाली में चौथे दिन की ये सुबह सामने कई सौ फ़ीट से गिर रहे झरने, लाखों देवदार के पेड़, इठलाती सी एक नज़ाकत में बहती हुई व्यास और गमले के फूल पर मंडराती उस तितली की तरह बेहद खूबसूरत है।

Monday 22 June 2015

इसलिए मैं पीछे मुड़ कर नहीं देखता मां

मन तो करता है कि बाइक पर बैठे-बैठे ही पीछे मुड़कर एक बार तो देख ही लूं लेकिन कभी हिम्मत नहीं जुटा पाता। मुझे पता है पीछे वही होगा जो मैं नहीं देखना चाहता। गेट पर लटकते दो चेहरे जिनमें से पक्का एक तो साड़ी से अपनी आंखें पोंछ रही होगी और दूसरी अजीब सा चेहरा बना कर लौट चुकी होगी। जब-जब घर से वापस आने के लिए बाइक पर पीछे बैठता हूं, टायर से कच्ची जमीं पर बनने वाले निशां की तरह बहुत कुछ पीछे छुटता जाता है और वो निशान अगली बार घर आने तक बने ही रहते हैं।

घर से बस स्टैण्ड तक के बमुश्किल 5 मिनट के उस सफर में जी जा चुकी उम्र को तय कर जाता हूं फिर कोर पर आई बूंद को चश्मे में छुपाने की उस कड़ी परीक्षा में हर बार सफल भी हो जाता हूं, लेकिन इस सफलता का कभी जश्न मनाने का मन नहीं करता। बस में बैठने के बाद भी खिड़की से उन्हीं मकान, दुकान और सड़क को देखता हूं जिन्हें बचपन से देखता आ रहा हूं पर ये कभी बोर नहीं करते जैसे जयपुर की अब हर एक चीज करती है। सब पीछे छूटता जाता है और मैं आगे बढ़ता हुआ भी खुश हो रहा होता हूं कि कितना पीछे जा रहा हूं।



मुझे पता है मेरे आने के बाद मां की ये शिकायत रहती ही है कि मैं कभी पीछे मुड़कर नहीं देखता, मन करता है मां पर हिम्मत नहीं होती। अगर पीछे देखूंगा तो फिर बहुत पीछे की यात्रा पर निकल जाने का मन होने लगता है। शाम तक के खाने के लिए तुम्हारे बनाए पराठे और उनके बीच रखे अचार की खुशबू से वो यात्रा शुरू होगी तो पता नहीं कहां जाकर रुकेगी। गर्मी में बिजली के ना आने पर साड़ी के पल्लू से की गई वो हवा उस यात्रा को और आरामदायक बना देगी। उसी यात्रा के दौरान सिर्फ मेरे लिए फ्रिज में रखे गए उस मक्खन को मैं उन पराठों से चट कर जाऊंगा और तुम धीरे से पापा की तरफ इशारा कर के हंसोगी, हंसते हुए असली घी-दूध की ताकत का मुझे अहसास भी कराया जाएगा, इस ताने के साथ कि क्या रखा है 'तुम्हारे' शहरों में मिलावटी सामान के अलावा? साथ ही कहा जा रहा होगा कि मेरे पास 15 दिन रुक जा, 5 किलो वजन ना बढ़ जाए तो....।

उसी यात्रा में अगर किसी शाम घर से बाहर निकल जाऊंगा तो उसी मोहल्ले में पहुचूंगा जहां चलना सीखा था, उस घर में जाने का शौक कतई नहीं है पर उसकी छत पर बैठकर अपने बचपन को नजदीक से देख पाने की तलब वहां लेकर पहुंच जाती है। घूम-फिर कर वापस उसी जगह पहुंचूगा जहां से यात्रा शुरू हुई थी यानी घर और फिर तुम कह रही होंगी कि कहीं जाता ही नहीं, घर में ही पड़ा रहता है। पर मैं घर में पड़े रहने के लिए ही तो घर आता हूं ताकि उस पूरी यात्रा से बच सकूं जिस पर निकलने के बाद थोड़ी खुशी और दुख ज्यादा होता है। दुख ये नहीं कि वो खुशी के पल जो हमने यहां जिए हैं वो कम हैं या कम रहे, दुख होता है कि हम उस 'बेहतर भविष्य' के लिए एक सुंदर वर्तमान को विदा कह देते हैं जिसे हम पूरा जी भी नहीं पाते।

हम प्रवासी लोगों के साथ यही एक दिक्कत है घर,गांव का नाम आते ही हम भावुक हो एक अनजानी सी यात्रा पर निकल जाते हैं। बाइक पर 5 मिनट के फासले में भी एक यात्रा लगभग पूरी हो जाती है और पीछे मुड़कर देखने में उस यात्रा के बहुत लंबे होने का खतरा पैदा हो जाता है, इसलिए मैं घर से लौटते वक्त पीछे मुड़ कर नहीं देखता मां।

Friday 5 June 2015

लंगोट से टैटू तक पहुंची भक्ति!

क्या धर्म या उसके प्रतीकों को लोगों को हिसाब से बदलते रहना चाहिए, उसकी पद्दतियां और पूजा-पाठ के तरीके भी समय के हिसाब से बदलने चाहिए? क्या भगवान को सिर्फ उन्हीं पारंपरिक तरीके से खोजा जा सकता है? एेसे कई सवाल हैं जो अक्सर मेरे दिमाग में आते रहते हैं, तब ज्यादा, जब नए लोग उसे अपनाने की कोशिश करें और उन्हें फिर उस धर्म के हिसाब से ही कपड़े पहनने पड़ें या सारे काम पुराने तरीके से ही करने के बिना लिखे नियमों के हिसाब से करना पड़े। जब देखता हूं कि वृंदावन के इस्कॉन मंदिर में आकर भक्ति में रमने वाले विदेशी लोग अपना सारा कल्चर छोड़कर उसी पारंपरिक लिवास में आ जाते हैं या अपने ही देश में कई युवा भी उसी तरीके से किसी सम्प्रदाय में शामिल होते हैं तो मन सवाल करता है कि क्या ये जिस भगवान की खोज करने निकले हैं उसी लिवास और कल्चर में रहकर नहीं कर सकते? क्या युवा अपने स्टेटस को मैंटेन करते हुए पूजा नहीं कर सकते? 

गुरूवार को इस बात का किसी हद तक जवाब मिल गया, हां कर सकते हैं। भक्ति लंगोट में या हिमालय पर ही जाकर ही नहीं की जा सकती बल्कि अपने स्टेटस को साथ लेकर और फैशन को मैंटेन करते हुए भी की जा सकती है। यो-यो टाइप बाल और लगभग पूरे बदन पर टैटू गुदवाया हुआ वो शख्स पहली नज़र में गिटारिस्ट ही लगा लेकिन जब ऊपर से नीचे तक गौर से देखा तो वो उन सब पारंपरिक लोगों से कम नहीं था लेकिन था कुछ अलग। जयपुर के गोविंद देव जी मंदिर में उन लड़कों की पूरी टोली उसी अंदाज में थी जिस अंदाज में वो शख्स था। हाथ में गुप्ती (जिसमें माला फेरी जाती है), गले में राम नामी गमछे के साथ-साथ नए जमाने के टैटू,बड़ी सी दाढ़ी और बाल एेसे कि अगर हम कटा लें तो घर निकाला मिल जाए! महंगी से जींस और टी-शर्ट, उस शख्स के बाकी दोस्त भी लगभग इसी अंदाज में थे।

उन्हें मंदिर में टहलते देखा तो उनके पीछे हो लिया, जहां वो जाकर बैठे उनके बगल में जाकर बैठ गया लेकिन वो जनाब गुप्ती में हाथ डाले माला फेर रहे थे औऱ मेरी हिम्मत नहीं हो रही थी कि किस तरह से बात शुरू करूं। काफी देर बाद हिम्मत जुटाई और पूछ लिया, आप जयपुर से ही हैं (क्योंकि उनके गेटअप से लग नहीं रहा था), जवाब मिला, हां, इसी सवाल के बाद तीन बार मैंने माफी भी मांग ली, डिस्ट्रब किया हो तो सॉरी! नाम पूछा और एक फोटो लेने की मंजूरी मांगी, उन्होंने सिर्फ सिर हिलाया और मैंने झट से ये फोटो क्लिक कर ली। 



फोन नंबर भी मांग लिए, सेव करने के लिए नाम पूछा तो नाम मिला, करन। करन 'भगत' के नाम से नंबर भी सेव कर लिया, थैंक्स बोला और चला आया। शुक्रवार को करन को फोन किया और वही पूछा जो ऊपर लिखा है क्योंकि मुझे लगा कि करन से बेहतर जवाब शायद ही कोई दे पाए। उन्होंने एक ही लाइन में जवाब दिया, 'मैं एक आर्टिस्ट हूं, खुद का टैटू स्टूडियो है और भक्ति का माहौल बचपन से घर में रहा है। इसलिए यही लुक मुझे शूट करता है। मुझे ये पसंद है'।

इसके बाद करन के फेसबुक पेज पर भी गया, हर दूसरे यो-यो टाइप स्टाइल के फोटो के बाद राधे-राधे और हरे-कृष्णा की पोस्ट देखने को मिली। ज्यादा आश्चर्य तब नहीं होता जब कोई विदेश का आदमी इस लुक में दिखाई देता, वो अक्सर दिखाई देते हैं, जटा और टैटू के साथ हाथ में गुप्ती लिए लेकिन जब करन को देखा तो लगा कि कुछ तो बदल रहा है। 


करन के फेसबुक पेज से ली गई तस्वीर

मेरे अलावा शायद और भी बहुत लोग थे उस जगह जो उन्हें अजीब नज़र से देख रहे थे। लेकिन किसी की नज़रें वो नहीं कह रही थीं जो अक्सर एेसा हो जाने पर तथाकथित धार्मिक ठेकेदार कहते फिरते हैं। जींस को संस्कृति और धर्म के ह्रास की वजह बताते फिरते हैं और भी पता नहीं क्या-क्या...यही लोग ये भी कहते हैं कि हिंदु धर्म सहिष्णु है और जींस पहन लेने पर धर्म का नाश भी करवा देते हैं।

करन जैसे हो सकता है सैंकड़ों-हजारों लोग और हों, अच्छा ही है, होने भी चाहिए। धर्म वही जो लोगों को अपनी सहुलियत से जीने की आजादी देता हो, अगर एेसा ना हो तो फिर वो ढोना पड़ेगा और एेसे ऊल-जुलूल बयान देने वाले शायद यही चाहते हैं...।