मां ने सुबह-सुबह नहला कर तैयार कर दिया है। सिर में आंवले का तेल और
आंखों में रात में जले दीपक से चमचे में बना देसी काजर (काज़ल) भर दिया है।
मैं हाथ छुड़ाकर जाने की नाकाम कोशिश कर रहा हूं लेकिन मां तब तक नहीं
छोड़ती जब तक वो अपनी उंगली में लगा बाकी काजर मेरे माथे पर न दे। मैं हाथ
छुड़ाकर कीचड़ और गोबर भरी गली में ऐसे भागा मानो मां ही मेरी जीत में सबसे
बड़ी दुश्मन है। पीछे से कानों में आवाज़ आ रही है, धीरें जा नैं तौ गिर
जागौ.... भाग रहा हूं इसीलिए कि स्कूल में पढ़ने से ज्यादा,
जाने में मजा आता है।
मोहल्ले के 10-15 मेरे जैसे नौनिहाल रास्ते में हर चीज (गोल-मटोल सा पत्थर, बोतल या कुछ भी जिस पर दिल आ जाए) को अपनी जिम्मेदारी मानते हुए ठोकरों से उसकी पहले से निर्धारित मंजिल तक पहुंचा रहे हैं। आखिरकार उसकी मंजिल आ गई, स्कूल के बड़े से दरवाजे के किसी कोने में उस चीज को सुरक्षित रख दिया गया है लेकिन वो ‘चीज’ जानती है कि उसकी मंजिल ये भी नहीं है, उसे छुट्टी के बाद फिर से सुबह वाली जगह पहुंचना है, क्योंकि उस ‘चीज’ की मंजिल हमारी ठोकर की गलत दिशा ही तय कर सकती है। अब स्कूल पहुंचे हैं, इमली के पेड़ के नीचे प्रेयर हो रही है, हमारा ध्यान इमली बीनने पर ज्य़ादा है इससे क्लास में स्वीटी सुपारी के साथ खट्टी-मीठी पढ़ाई होगी। लंच टाइम है इसीलिए खुश हूं। जैसे-तैसे छुट्टी हुई, सारे दिन उस चीज के बारे में ही सोचता रहा जो दरवाजे के एक कोने में रखी अपनी मंजिल का इंतज़ार कर रही है। सारे साथी दरवाजे पर खड़े हैं, बिना किसी छल-कपट और बेईमानी के पहली ठोकर वही देता है जिसने सुबह लास्ट ठोकर दी थी, ये तय था। लेकिन...लेकिन सबसे पहले आज सोना-चांदी, होठ लाल करने वाला चूरन, गुरू-चेला, खाने के लिए किसी को पोटना है, किसे? वही जिसे आज क्लास में सबसे ज्यादा शाबाशी या सबसे ज्यादा डांट पड़ी है। अगर कोई नहीं खिलाएगा तो इतनी साख है कि अब्दुल चाचा उधार दे देगें!
मोहल्ले के 10-15 मेरे जैसे नौनिहाल रास्ते में हर चीज (गोल-मटोल सा पत्थर, बोतल या कुछ भी जिस पर दिल आ जाए) को अपनी जिम्मेदारी मानते हुए ठोकरों से उसकी पहले से निर्धारित मंजिल तक पहुंचा रहे हैं। आखिरकार उसकी मंजिल आ गई, स्कूल के बड़े से दरवाजे के किसी कोने में उस चीज को सुरक्षित रख दिया गया है लेकिन वो ‘चीज’ जानती है कि उसकी मंजिल ये भी नहीं है, उसे छुट्टी के बाद फिर से सुबह वाली जगह पहुंचना है, क्योंकि उस ‘चीज’ की मंजिल हमारी ठोकर की गलत दिशा ही तय कर सकती है। अब स्कूल पहुंचे हैं, इमली के पेड़ के नीचे प्रेयर हो रही है, हमारा ध्यान इमली बीनने पर ज्य़ादा है इससे क्लास में स्वीटी सुपारी के साथ खट्टी-मीठी पढ़ाई होगी। लंच टाइम है इसीलिए खुश हूं। जैसे-तैसे छुट्टी हुई, सारे दिन उस चीज के बारे में ही सोचता रहा जो दरवाजे के एक कोने में रखी अपनी मंजिल का इंतज़ार कर रही है। सारे साथी दरवाजे पर खड़े हैं, बिना किसी छल-कपट और बेईमानी के पहली ठोकर वही देता है जिसने सुबह लास्ट ठोकर दी थी, ये तय था। लेकिन...लेकिन सबसे पहले आज सोना-चांदी, होठ लाल करने वाला चूरन, गुरू-चेला, खाने के लिए किसी को पोटना है, किसे? वही जिसे आज क्लास में सबसे ज्यादा शाबाशी या सबसे ज्यादा डांट पड़ी है। अगर कोई नहीं खिलाएगा तो इतनी साख है कि अब्दुल चाचा उधार दे देगें!
उफ्....इस एस्केलेटर को भी अभी खत्म होना था...ये जेडीए वाले दो-चार सीढ़ी
और लगा देते तो क्या बिगड़ जाता? कोई नहीं... कोई नहीं... चलो यार अब ऑफिस
चलते हैं एक कचौड़ी खा लें पहले......