Tuesday 26 April 2016

Nostalgia: बचपन, स्कूल, खेल और छूटा हुआ वो सब

मां ने सुबह-सुबह नहला कर तैयार कर दिया है। सिर में आंवले का तेल और आंखों में रात में जले दीपक से चमचे में बना देसी काजर (काज़ल) भर दिया है। मैं हाथ छुड़ाकर जाने की नाकाम कोशिश कर रहा हूं लेकिन मां तब तक नहीं छोड़ती जब तक वो अपनी उंगली में लगा बाकी काजर मेरे माथे पर न दे। मैं हाथ छुड़ाकर कीचड़ और गोबर भरी गली में ऐसे भागा मानो मां ही मेरी जीत में सबसे बड़ी दुश्मन है। पीछे से कानों में आवाज़ आ रही है, धीरें जा नैं तौ गिर जागौ.... भाग रहा हूं इसीलिए कि स्कूल में पढ़ने से ज्यादा, जाने में मजा आता है। 


मोहल्ले के 10-15 मेरे जैसे नौनिहाल रास्ते में हर चीज (गोल-मटोल सा पत्थर, बोतल या कुछ भी जिस पर दिल आ जाए) को अपनी जिम्मेदारी मानते हुए ठोकरों से उसकी पहले से निर्धारित मंजिल तक पहुंचा रहे हैं। आखिरकार उसकी मंजिल आ गई, स्कूल के बड़े से दरवाजे के किसी कोने में उस चीज को सुरक्षित रख दिया गया है लेकिन वो ‘चीज’ जानती है कि उसकी मंजिल ये भी नहीं है, उसे छुट्टी के बाद फिर से सुबह वाली जगह पहुंचना है, क्योंकि उस ‘चीज’ की मंजिल हमारी ठोकर की गलत दिशा ही तय कर सकती है। अब स्कूल पहुंचे हैं, इमली के पेड़ के नीचे प्रेयर हो रही है, हमारा ध्यान इमली बीनने पर ज्य़ादा है इससे क्लास में स्वीटी सुपारी के साथ खट्टी-मीठी पढ़ाई होगी। लंच टाइम है इसीलिए खुश हूं। जैसे-तैसे छुट्टी हुई, सारे दिन उस चीज के बारे में ही सोचता रहा जो दरवाजे के एक कोने में रखी अपनी मंजिल का इंतज़ार कर रही है। सारे साथी दरवाजे पर खड़े हैं, बिना किसी छल-कपट और बेईमानी के पहली ठोकर वही देता है जिसने सुबह लास्ट ठोकर दी थी, ये तय था। लेकिन...लेकिन सबसे पहले आज सोना-चांदी, होठ लाल करने वाला चूरन, गुरू-चेला, खाने के लिए किसी को पोटना है, किसे? वही जिसे आज क्लास में सबसे ज्यादा शाबाशी या सबसे ज्यादा डांट पड़ी है। अगर कोई नहीं खिलाएगा तो इतनी साख है कि अब्दुल चाचा उधार दे देगें!



उफ्....इस एस्केलेटर को भी अभी खत्म होना था...ये जेडीए वाले दो-चार सीढ़ी और लगा देते तो क्या बिगड़ जाता? कोई नहीं... कोई नहीं... चलो यार अब ऑफिस चलते हैं एक कचौड़ी खा लें पहले......

सचिन तेंदुलकर के नाम मेरा पहला खुला खत

तुम सचमुच लाजवाब हो, दुनिया में तुम्हीं हो, जिसकी बैटिंग के वक्त मेरी मां और बहन सीरियल देखना छोड़ देती थी फिर अगले दिन रिपीट टेलीकास्ट देखती थीं। मुझे याद है, तुम 98 पर खेल रहे थे तभी मैंने कहा कि मम्मी... सचिन 99 पर आउट होगा। ऐसा ही हुआ, खाना खाती हुई मां ने मेरे सिर पर चपेट मारी थी और तुम्हारे आउट होने का पूरा दोष मुझ पर डाल दिया। वो सिर्फ तुम ही थे जिसकी वजह से मेरे 70 साल के दादाजी किक्रेट देखते थे, किसी दोपहर खेत से आते और मैच चल रहा होता और तुम खेल रहे होते तो बोलते, जे का सचिन खेल रौ ए? और खुद भी देखने लग जाते। तुम जब अच्छा नहीं खेलते थे तो चार गाली भी पड़ती थी। मेरी भजन-पूजा वाली दादी की माला भी तुम्हारी बैटिंग के वक्त रुक जाती इसलिए तुम भगवान हुए। तुम ही एकमात्र खिलाड़ी हो जिसका नाम मेरे गांव में बकरी चराने वाले मुश्तू बाबा भी जानते हैं। मुझे याद है कि गांव में बड़े-बुजुर्ग लोग सर्दियों में अलाव सेकते हुए अमेरिका, इंग्लैंड की अधूरी जानकारी के साथ चर्चा करते फिर कुछ बात नहीं बचती थी तो बातचीत राजनीति से खेल पर आकर रुकती। तुम्हारी भी बातें होती पर अंत में बात राजनेताओं, अभिनेताओं और खिलाड़ियों पर होने वाले पैसे पर खत्म होती थी। मैं अपने बचपन और तुम्हारी किक्रेट में जवानी की बात कर रहा हूं। तुमसे मैं कभी नहीं मिला पर अपना जुड़ाव इसलिए महसूस कर रहा हूं कि तुम्हारे लिए मां से छोटे दिमाग (सिर का पिछला हिस्सा) पर लप्पड़ खाया है मैंने!
अब तुम किक्रेट खेलने से इस्तीफा दे रहे हो, अच्छी बात है लेकिन सचिन तुम खेलते रहोगे, मेरी मां के फेवरेट सीरियल आने के टाइम में, दादाजी के साथ खेत में, दादी की भजन माला में। मुश्तू बाबा की बकरियों में, अलाव में जलते हुए आखिरी कोयले पर हाथ सेकते उन बुजुर्गों की ‘इंटरनेशनल’ बातों में। तुम खेलते रहोगे तब तक, जब तक वो लोग जिन्दा रहेंगे जिन्होंने तुम्हें खेलते हुए देखा है।
तुम्हारा
माधव

Saturday 23 April 2016

गांव का ये खुलापन खुशी दे रहा है

हो सकता है आपके लिए ये सामान्य बात हो, हो सकता है कि ये आपके गैर जरूरी हो। एक बदलाव नज़र रहा है। एक शुरूआत हुई है उम्मीदों भरी। उम्मीद एक निहायत ही गैरजरूरी रीति के टूटने की, उम्मीद एक आजाद ख़्याल समाज के बनने की, उम्मीद अपने से छोटों यानी बेटों खासकर बेटियों की बात और पसंद को तवज्जो देने की और उम्मीद एक ऐसे समाज के उच्च वर्ग के लोगों की सोच बदलने की जो कुछ साल पहले तक लड़की ही नहीं लड़कों के जींस पहनने पर भी रोक लगाती थी।
मैं मेरे घटिया से शहर में तब्दील होते हुए गांव से निकली इस उम्मीद को सच होते हुए देख पा रहा हूं। सुनकर अच्छा लगता है कि हमारी पीढ़ी के बच्चे जिनमें ज्यादातर का बचपन परिवार के बड़ों से अजीब डर में निकला वो इस उम्र पर आकर अपनी पसंद खुलकर उसी परिवार के सामने रख रहे हैं और परिवार भी बिना झगड़े, बिना ज्यादा नाक-नक्श लगाए उन रिश्तों को अपना रहे हैं। यह भले ही शुरूआत भर हो लेकिन जिस सामाजिक चौहद्दी में मेरा गांव और उसके संभ्रांत परिवार आते हैं वहां इस शुरूआत को उनकी कामयाबी कहने को मन कर रहा है जो प्रेम में यकीन रखते हैं। कुछ हो या हो लेकिन इस शुरूआत से दहेज के लिए जो रेट लिस्ट बनीं हैं गांवों में वो कुछ हद तक काबू में होगी, रेट लिस्ट काबू में होगी तो कम से कम लड़की वालों को राहत तो मिलेगी ही वरना जैसे ही कोई रिश्ता लेकर आता है चौराहे पर बैठे फालतू के पटेल हीवहां तो डिमांड हैकहकर ही उसे टरका देते हैं। दूसरा फायदा उन बिचौलियों से होगा जो अपनी जिंदगी का सबसे बड़ा टास्क किसी की लड़की को अपने नातेदार-रिश्तेदार के लड़के को दिला देना मान लेते हैं वो भी सबसे कम रेट में।
ये अच्छा ऐसे भी है कि ऐसे खुलेपन के माहौल में हमारे पहले की पीढ़ी को खुलकर बात करने और वो शब्द इस्तेमाल करने का मौका मिल जाता है जिन्हें वो अपनी जवानी के दिनों में शायद नहीं ले सकते थे, हैरत हो सकती है लेकिन हमारे यहां की सामाजिक बनावट में लव शब्द मेरे बचपन तक बहुत आसानी से नहीं लिया जा सकता था लेकिन अब जब ये दीवारें टूटने लगी हैं तो मेरे पिता जैसी उम्र के लोग अपनी उम्र के लोगों से यह भी कह पा रहे हैं कि, ‘अच्छा आपके बच्चे को फलाने की बच्ची सेलवहो गया है ये उस समाज के लोगों के मुंह से निकला हुआ शब्द है जो अपनी लड़कियों को किसी से लव मैरिज कर लेने के बाद भी वापस ले आए औरइज्जतके नाम पर दूसरी शादी भी करवा दी, सबको पता भी चला लेकिन कोई बोला नहीं क्योंकि सबकीइज्जतेंइस तरह बच रही थीं। अब अच्छा लग रहा है कि लड़के या लड़की का पिता आकर कहता है, ‘फलाने अब का करें जमानौ बदलरौ , नईं करी तौ कछु कर बैठंगे’, बिना  शर्तों का प्यार शादियों में भी बदल रहा है।
ये अहम इसलिए भी है कि मेरे साथ पढ़ी कई लड़कियों को पढ़ाई छुड़वा कर से सिर्फ इसलिए घर बिठा लिया क्योंकि उसने कोई बॉयफ्रेंड बना लिया या वो किसी लड़के के साथ सिर्फ आइसक्रीम खाते हुए दिख गई थी।  
खैर! बहुत अच्छा लग रहा है हमारे आसपास कुछ तो बदल रहा है और ये बदलाव शहर ही नहीं गांवों में भी पहुंच रहा है। उम्मीद है इस शुरूआत का फैलाव बढ़ेगा, प्यार बढ़ेगा तभी समाज निखरेगा।