Sunday 29 March 2015

पार्क की बातें...

जयपुर में मानसरोवर के इस रोज़ गार्डन को हर किसी ने अपने हिसाब से बांटा हुआ है। एंट्री गेट पर ही देश की सारी समस्याओं की चिंता 60+ क्लब के लोग करते हुए पाए जाते हैं। मनरेगा से लेकर विदेश नीति तक संभाल लेते हैं हमारे बुजुर्ग। अभी 'आप' की सारी समस्याएं बेंच पर बैठे-बैठे सॉल्व कर रहे हैं।

 ठीक इनके पीछे 50+ की आंटियां बैठी हुई हैं। इनमें से एक के बेटे की सिंगापुर में नौकरी लगी है जबकि दूसरी का बेटा दिल्ली में ही रह गया। तीसरी आंटी किस्मतवाद में भरोसा करती हैं, जो कह रही हैं हमारे की किस्मत में होगा तो कहीं लग जायेगा।

 थोड़ा आगे बढ़ आईये तो इन भाइयों को बैडमिंटन खेलते इतना पसीना आ गया है कि सिर्फ बनियान में खेल रहे हैं तरबतर। पार्क में क्रिकेट खेलना मना है तो क्या हुआ हम बच्चे टेनिस बॉल से कैच-कैच खेल लेंगे। ओह! इसके हाथ में तो बॉल भी नहीं फिर भी दूर से दौड़ कर आ रहा है और बॉल फेंकने की प्रैक्टिस कर रहा है।

पार्क की सारी बेंच खाली हैं क्योंकि शहर में किसी को घास नहीं मिलती बैठने को लेकिन ये लड़का है जो हाईमास्ट लाइट के नीचे बिछी बेंच पर बैठ कर पढ़ रहा है। शायद! कोई एग्जाम है लेकिन रूम में इतनी गर्मी है कि वहां टिका ही नहीं जा रहा, इसलिए पार्क में आकर पढ़ रहा है।

 टहल रहा हूं तभी गुलाबों के पौधों के बीच से आवाज आई, यहां से कहीं और बैठते हैं खुले में,मच्छर बहुत काट रहे हैं यहां। मुझे नहीं पता, इनका क्या रिश्ता है लेकिन जिस तरह से बैठे हैं, मैं भी वही समझ रहा हूं जो हमारा समाज समझता है। ओह! इस मोटी सी लड़की ने कानों में इयर फोन लगा कर कितने चक्कर लगा दिए इतनी सी देर में।

अच्छा तो फैमिलीज़ के बैठने का अलग सेक्शन है। सब लोग कुछ चर्चा में मशगूल हैं हाथ में एक-एक कोन पकड़े। वैसे हर पार्क के बगल में हर जगह मंदिर क्यों होता है, वो भी एग्जिट गेट के आसपास? शायद इसलिए कि पार्क से जाते हुए लोग धोक लगाते हुए निकल जाएं,एक्स्ट्रा बेनिफिट्स हो तो ठीक।

खैर! दो चक्कर मेरे भी पूरे हुए। जहां बैठा हूं उसी जगह कमाल का सामाजिक बदलाव होते हुए महसूस कर रहा हूं, एक अंकल किसी लड़की से पूछ रहे हैं (शायद बाप-बेटी हैं) लड़का पसंद नहीं हो तो बता दे। कुछ देर शांति रही फिर बोली, हाईट कम है।

मेरा मेरी करणेंद्रिय पर काबू नहीं है इसलिए जहां से गुजर रहा हूं कुछ ना कुछ सुनकर निकल रहा हूं। आप ये मत कहना कि किसी की प्राइवेट बातों को सुनने का मुझे कोई हक़ नहीं है, नहीं तो मैं जबाव दूंगा कि पब्लिक प्लेस पर कोई प्राइवेट कैसे रह सकता है?

भैया का फ़ोन आ गया, खाना पैक करवा ला (दो दिन से सिलेंडर ख़त्म जो है) इसलिए निकलने लगा हूं लेकिन ये लड़के गुलाबजामुन की  बात पर इतना क्यों हंस रहे हैं?? और ये भाई खुद भागने का अहसास टेम्पल रन में भागकर कर रहा है और इन जवान लड़कों के लिए धर्म भूखे को खाना खिलाना है, पूजा-पाठ नहीं।

देखो तो बाज़ार को जहां कुछ लोग दिखे वहीँ आ जाता है। गेट पर लौकी, करेले, चुकंदर  और पालक का ज्यूस बिलकुल प्राकृतिक। राजा जी आइसक्रीम और मेरठ की पतासी एकदम शुद्ध और साफ़ पानी से बनाई हुई।अरे! इतनी गाड़ियां? अच्छा सब लोग घूमने के लिए कार और बाइक से आये हैं। अब चला जाए...खाना पैक करवाना है।

Thursday 26 March 2015

लाखों-करोड़ों अनुष्काएं हैं, जिनका कोई विराट नहीं

कोहली क्या अकेला घं... कर लेता यार! और धोनी अपनी पूरी पारी ढंग से खेलकर गया। 65 में 65, एक भी बॉल खराब नहीं की। रोहित तो खेला ही नहीं, रैना भी नहीं खेला मतलब कोई भी नहीं खेला जैसा सब खेलते हैं। भैन...द जब वर्ल्डकप शुरू हो रहा था तब तो सारी तोपें कह रही थी टीम बड़ी कच्ची है, ज्यादा आगे नहीं पहुंच पाएगी। अब सेमीफाइनल से लौट रही है तो बम्बू हो रहा है। और बेचारीअनुष्का की वैसे ही ले ली यार! यार कुछ भी है हमारा देश है तो चू...यों का देश


रात के 11.30 बजे घर के पास बने खूबसूरत से रोज गार्डन में टहलते हुए 4-5 लड़कों की बातचीत है ये। जैसे बातें कर रहे थे, लगा इंजीनियरिंग के स्टूडेंट हैं। बातचीत के तरीकों से साफ लग रहा था ये इंटरनेट पर ही रहते होंगे और टीवी कम ही देखते होंगे। देखते भी होंगे तो मैं यकीन से कह रहा हूं न्यूज़ चैनल नहीं देखते होंगे। वो समाचारों के लिए शाम को अखबारों की वेबसाइट्स देखते हैं, ऐसा एक ने बताया। टीवी नहीं देखते तभी उनकी बातों में ईमानदारी और अनुष्का के लिए हमदर्दी थी।


मतलब मैं ये राय बना रहा हूं कि जोक उन्होंने ही बनाए जो टीवी देखते हैं। क्योंकि मज़ाक मैंने उन्हीं को बनाते हुए ज्यादा देखा जो सोशल और मेनस्ट्रीम मीडिया में हैं या दिलचस्पी रखते हैं। मेरी मां ने भी शाम को फोन पर मुझे अनुष्का-विराट पर बना एक चुटकुला सुनाया, जबकि वो इंटरनेट नहीं चलातीं, घर में रेडियो भी नहीं है सिर्फ टीवी है और ज्यादातर समय अकेली रहती हैं। 

मतलब चैनल (न्यूज़ वेबसाइट्स भी) जनमानस में राय बनाता है और किसी चीज को इतना बढ़ा-चढ़ा कर दिखाता है कि सभी को उसी नज़रिए से दिखने लगता है। इसमें मीडिया में काम करने वाले भी सब कुछ जानते हुए शामिल हो जाते हैं। साथ ही (न्यूज़ चैनल और अखबारों) की वेबसाइट्स खासकर हिंदी की साइट्स इलेक्ट्रोनिक मीडिया के 2005 वाले दौर में हैं। खबर और साइट दोनों को चलाने के लिए (जिसे हम बेचना भी कहते हैं) जहां सांप-बिच्छु वाली खबरों की तरह अनुष्का और विराट को बेचा गया। मैच हारने की स्थिति में पहुंचे तो उन खबरों की प्राइआरिटी घटा-बढ़ा दी जो सुबह भारत की जीत की भविष्यवाणियां कर रही थीं, ताकि वो साइट में अंदर दब जाएं।


अब रही बात अनुष्का शर्मा को लेकर बनी मज़ाक की तो इसमें मुझे कोई आश्चर्य नहीं क्योंकि जब ऑफिस से घर लौट रहा था तब शेखावाटी के दो लड़के एक लड़की पर कमेंट कर रहे थे। लड़की की ख़ता ये थी कि वो वाट्सएप पर किसी से चैट कर रही थी, इसी दौरान उसका स्टैंड आ गया और वो हड़बड़ी में ही पीछे के दरवाजे से उतरने लगी। कंडक्टर ने मना कर दिया तो उसे अगले स्टैंड तक इंतजार करना पड़ा। इतनी देर में चैटिंग को लेकर दोनों ने जो कमेंट किए, लिख नहीं सकता। मैंने इतना ही कहा कि यार आप इसके वाट्सएप पर चैटिंग को ही देख रहे थे क्या? मुझे मारने पर उतारू हो गए, वो दो थे और मैं दुबला सा अकेला बाकी सब हंसने वाले। इसलिए चुप हो गया। इसलिए देश में लाखों-करोड़ों अनुष्काएं हैं, जिनका कोई विराट नहीं। हां, उस मज़ाक में कुछ देर के लिए मैं भी शामिल हुआ था, भले ही कुछ लिखा ना हो पर लिखे हुए को एक-दो जगह शेयर किया था वाट्सएप पर इसलिए अनुष्का से माफी मांगता हूं।

Saturday 21 March 2015

बिरयानी तो झूठ था...

तो कसाब ने कभी जेल में बंद रहते न बिरयानी खाई और न ही उसने इसकी कभी डिमांड रखी थी। बिरयानी वाली बात तो देश में कसाब के प्रति बन रही सहानुभूति को रोकने के लिए मैंने मीडिया के आगे यूं ही कह दी और यह बड़ी खबर बनी। यहां तक कि उस समय के विपक्ष के नेता देवेन्द्र फड़नबीस ने भी इस बात की जांच के लिए जेल का दौरा किया था। कसाब नाटक भी करता था। जैसा उसने रक्षाबंधन वाले दिन कोर्ट में रो कर किया।  उसने मुझसे पूछा कि 'बादशाह तेरे हाथ में ये लाल धागा काहे को बंधा है'?


ये सारी बातें शुक्रवार को  सरकारी वकील उज्ज्वल निकम ने जयपुर में कही थीं। हालांकि मुझे इस बात पर ज़रा भी आश्चर्य नहीं हुआ कि उसने कभी बिरयानी मांगी भी या नहीं। शुरू से इस बात में कभी दिलचस्पी भी नहीं थी कि वो क्या खाता है और क्या पीता होगा। लेकिन अब सबके सामने आ गया कि यह महज़ झूठी और जाूनबूझकर फैलाई गई जानकारी थी। यह झूठ राष्ट्रीय खबर बनी औऱ कई राजनेताओं ने इसे अपने भाषणों में शामिल भी किया खासकर भाजपा ने। खुद मोदी ने भी इस झूठ को अपने चुनावी भाषणों में इसे आतंक के विरुद्ध इस्तेमाल किया।


तो पहली बात ये कि निकम ने इसे अब सार्वजनिक क्यों किया? निकम कसाब को फांसी होने के बाद भी ये तुरंत बता सकते थे लेकिन उन्होंने एेसा नहीं किया।


दूसरा, देश का राष्ट्रीय मीडिया। निकम के अनुसार यह बात  मीडिया को काल्पनिक बातों में उलझाने की रणनीति का हिस्सा थीं। क्योंकि मीडिया में कसाब के लिए सहानुभूति पैदा करने वाली खबरें चलाई थीं और उसे बच्चा साबित किया जा रहा था। कोर्ट में उसके आंसू पोंछने के नाटक को मीडिया ने दिखाया कि बहन की याद में कसाब कोर्ट में रोने लगा। खैर! ये एक आतंकवादी से जुड़ा झूठ है इसलिए सरकार भी इसे देशहित में सही कह देगी और जनता जनार्दन का कुछ हिस्सा भी।


लेकिन इससे ये भी साफ हो गया कि  हमारे मीडिया में कोई भी बात कितनी आसानी से प्लांट कराई जा सकती है और बड़े-बड़े धुरंधर पत्रकार कितनी आसानी से उन पर यकीन कर एक झूठ को राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बना देते हैं। कितनी स्टोरी मीडिया में प्लांट करवाई जाती होंगी सिर्फ  झूठ पर? हम जब पत्रकारिता 'पढ़' रहे थे तब यह बताया गया कि किसी की बात को ज्यों का त्यों नहीं दिखाया या छापा जाना चाहिए। पहले उसकी पूरी जांच-पड़ताल की जानी चाहिए। लेकिन यहां  कुछ नहीं हुआ।


निकम की इस बात से साफ हो गया कि हम जो भी देख-पढ़ रहे हैं वो मिलावटी तो है। इतना ही नहीं मिलावट का प्रतिशत ना तो अखबार का संपादक  जानता है औऱ न ही वो टीवी चैनल जो इस मिलावट भरी खबर पर प्राइम टाइम कर रहा है। मतलब पूरा मामला एकतरफा है।


प्रख्यात पत्रकार जॉन पिल्गर ने इस पर शिकागो में एक व्याख्यान में मीडिया में प्रोपेगेंडा, बिकी हुई खबरों पर लंबा भाषण दिया था। उसमें बताया था कि अमेरिका के अखबार के एक झूठ ने किस तरह से इराक में युद्ध करवा दिया और वहां के हालात सबके सामने हैं। (लेख को आप यहां पढ़ सकते हैं।--http://hashiya.blogspot.in/2010/02/blog-post_15.html)


 इसलिए आप वही पढ़िए जो आपके काम का है। अपनी जानकारी लेने के माध्यमों को आप एक या दो तक सीमित मत रखिए। मीडिया में जो भी दिखाया और लिखा जा रहा है हो सकता है वो पूरा सच ना हो। इसलिए बी अवेयर!

Wednesday 4 March 2015

इसलिए मेरे ब्लॉग का नाम 'मेरी बाख़र' है...

एक शब्द आपको भूत में ले जाकर उस पूरे समय की यात्रा कराने की बहुत बड़ी ताकत अपने पास रखता है। ठीक उसी तरह जैसे बाख़र शब्द ने मुझे करा दी। कई दिनों से एक अच्छे शब्द की तलाश में था जिसे अपने ब्लॉग का नाम दे सकूं लेकिन सोचने से कहां शब्द आते हैं ये तो अचानक ही आपकी स्मृति में आते हैं और अपने साथ लेकर चले जाते हैं। दरअसल, इस शब्द को मैंने जीया नहीं लेकिन इसमें पूरी एक संस्कृति बसी हुई है। इंसान को इंसान के साथ रखने की हमारे बुजुर्गों की चतुराई भरी रचना है ये बाख़र शब्द। हो सकता है अलग-अलग इलाकों में इसका नाम अलग-अलग हो लेकिन देश के हर इलाके में चलता जरूर है।

बाख़र का मतलब सीधे समझें तो घर होता है, लेकिन मैं इसे दूसरे तरीके से समझने की कोशिश करता हूं कि आखिर इस शब्द को क्यों जन्म दिया गया होगा और इस शब्द को गढ़ने के पीछे वो कौनसे विचार थे?

खैर! हमारा जन्म तो ईंट-पत्थरों के बने पक्के घरों में हुआ लेकिन पिताजी तक की पीढ़ी कच्चे घरों में ही जन्मी। गोबर से लिपी दीवारें और छत पत्थर के बड़े-बड़े चौकों से बनी जिनका दोनों और ढलान होती थी। जिन्हें पाटौर कहते हैं। काफी एरिया में फैले इन घरों की खासियत थी कि इनमें कोई एक परिवार नहीं रहता था। रहते थे सारे खानदान के लोग। एक बाख़र मतलब बड़े-बड़े 8-10 कच्चे कमरे। जिसमें कम से कम 4-5 परिवार। मतलब एक परिवार के पास 2 कमरे। लेकिन ये वैसे ही रहते थे जैसे आजकल फिल्मों में भारत-पाकिस्तान के अलग होने से पहले हिन्दु-मुसलमानों के प्यार से रहने को दिखाया जाता है। चौकोर या गोलाई में बने कमरों के बीचों-बीच बड़ा सा आंगन जिसमें हर परिवार के अपने कमरे के आगे चूल्हे रखे होते थे। हर परिवार 5 तरह की सब्जियों से खाना खाता था। एक परिवार में एक ही सब्जी बनने के बावजूद। खुले में किचन होने का फायदा शायद यह होता होगा कि घर की औरतें खाना बनाते-बनाते गप्पें भी मार लिया करती होंगी।

 शाम की महफिल इन बाख़रों के आगे बने चबूतरों पर सजा करती थी। मैं उन बच्चों में से था जिनका परिवार इन बाख़रों से निकलकर पक्के घरों में बस चुका था लेकिन बाख़र वालों के ठीक सामने ही। इस तरह हम पक्के मकानों की छतों से उन चबूतरों पर सजी महफिलों को देखा करते थे। सर्दियों में अलाव पर बैठ कर बुजुर्गों की देश के लिए चिंताएं, राजनीति से नाउम्मीदगी और फिर लौट-फिर कर अपने खेतों पर लौट आना धुंधला-धुंधला सा याद है।
फिर सब बाख़र में बने कमरों की ओर लौट जाते।

कुलमिलाकर बाख़र एक ऐसी जगह हुआ करती थी जहां अलग-अलग विचारों के बावजूद सब लोग प्यार से एक साथ रहते थे। लेकिन एक दिन एेसा आया जब सबके पक्के घर बन चुके थे, सब उनमें से निकलकर अपने पैसे का प्रदर्शन करने लगे और उन खाली पड़ी बाख़रों के खंडहर बन चुके कमरों के पीछे उन लोगों की संतानें आपस में लड़ने लगीं। लड़ाई इसलिए हुई क्योंकि बुजुर्गों ने यह सोचकर उन्हें नहीं बनाया कि कल अगर लड़ाई-झगड़े भी हुए तो रास्ते भी अलग-अलग होने चाहिए।
उन बुजुर्गों की संतानें उन खंडहर में भी हिस्सा लेने पहुंच गई हैं। लड़ाइयां रुक नहीं रहीं क्योंकि एक बाख़र के अब मालिक कई हैं औऱ रास्ता सिर्फ एक। वो आंगन में रखे वो टूटे हुए चूल्हे उन लड़ाइयों के गवाह बन रहे हैं।

 बाख़र से निकलकर पक्के घरों में पहुंचे लोग अब एक ही खानदान के होने के बावजूद एक-दूसरे से बात नहीं करते, शादी-ब्याह में आना-जाना नहीं है। अब हर घर में अलग अलाव जलता है और वो एक ही सब्जी से खाना खाते हैं। लेकिन मेरा मन करता है कि वो एक ही अलाव फिर से जले, एक सब्जी बनने के बाद भी मैं 5 सब्जियों से खाना खाऊं। शायद उस हकीकत में पहुंचना अब असंभव है तो मैंने सोचा क्यों ना एक बाख़र यहां बसा ली जाए। प्रग्रेसिव होते हुए भी हम पहले जैसे रहें, बाख़र वालों की तरह। कम से कम फीलगुड तो रहेगा। 'मेरी बाख़र' एेसी हो जहां सिर्फ प्यार हो, प्यार का अलाव हो और वही अलाव वाली प्यारी-प्यारी बातें और बहसें।