Wednesday 25 February 2015

मैंं इश्क में शहर नहीं हो सकता...

देखो आजकल सब इश्क़मय हो रहे हैं। क्यों ना हम भी इश्क़मय हो जाएं। लेकिन...लेकिन मैं कैसे इश्क़ में हो सकता हूं। सब शहर में इश्क़ करके इश्क़ में शहर हो रहे हैं। मैं तो गांव का हूं।  तो क्या हुआ? क्या तुम मेरे इश्क़ में शहर नहीं हो सकते? नहीं। सब तो हो रहे हैं। मैं नहीं हो सकता। हां सरसों के खेत में बैठकर इश्क़ कर सकते हैं। खेत में मैं गांव हो जाऊंगा और तुम वहां से दिख रही उस बड़ी सी इमारत को देखकर शहर। नहीं। अच्छा तो मैं इन खेतों के पीछे से गुजर रहे बाईपास हाईवे पे चल रही गाय को देखकर और तुम उस कार को देखकर शहर हो जाना। छि! तुम कितने बुरे हो। क्या तुम मेरे लिए मेट्रो से दिख रहे खेत को देखकर गांव नहीं हो सकते? यार! तुम भी तो खेत से दिख रही इमारत को देखकर गांव नहीं हो रही। 
अच्छा झगड़ा नहीं करते,तुम इश्क़ में गांव रहो और मैं शहर रहती हूं। ओके? ओहके! चलो आओ एक भुट्टा खाते हैं। ये दोनों जगह होकर भी भुट्टे ही रहते हैं। 

Sunday 22 February 2015

नरेन्द्र ने मुझे बताया कि टूट रहा है नरेन्द्र का तिलिस्म

 मई 2014 में एनडीए की सरकार बनने पर चारो तरफ का राजनीतिक माहौल मोदीमय था। केन्द्र में एनडीए सरकार को 9 महीने बीत गए और बीजेपी दिल्ली विधानसभा चुनाव शर्मनाक तरीके से हार गई। दिल्ली चुनाव में बीजेपी नेताओं के उल्टे-सीधे बयानों और सही समय पर सही निर्णय नहीं ले पाने को हार की वजह बताया गया। लेकिन देश के साथ-साथ विश्व मीडिया ने भी दिल्ली की हार को प्रधानमंत्री मोदी की हार बताया। 
अखबारों में भी ऐसी खबरें आईं लेकिन मैं यह मानने को तैयार नहीं था कि ये मोदी की हार है या देश उनकी लोकप्रियता कम हो रही है।

  लेकिन कल मेरा यह मानना ना मानने में बदल गया जब 80 के दशक में चलने वाले स्कूटर पर बैठे एक अधेड़ सज्जन ने मुझे लिफ्ट दी और उस दौरान उन्होंने जो बातें कहीं, उनसे लगा कि सच में अब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का तिलिस्म टूट रहा है। संयोग से उनका नाम भी नरेन्द्र था और एक बैंक में काम करते हैं। स्कूटर पर चलने के दौरान पता ही नहीं चला कि कब हम दोस्त बन गए। नरेन्द्र जी अपने अनुभव बताने लगे और मैं पीछे बैठा-बैठा सुनने लगा।

 फिर बोले आप पत्रकार इसलिए मुझसे ज्यादा समझते होंगे और एक सवाल दागते हुए कहा, कांग्रेस सरकार भी प्रो-कॉर्पोरेट थी लेकिन इतना खुलेआम नहीं था जितना इस सरकार ने 9 महीने में ही  दिखा दिया। मैंने कोई जवाब नहीं दिया और लगातार उन्हें बोलने का मौका देता रहा। बोले, मोदी ने सपने तोड़ दिए। साथ ही बोले हालांकि 9 महीने में हम तय नहीं कर सकते लेकिन पूत के पांव पालने में ही दिख जाते हैं। साफ-साफ शब्दों में कहा, ये कुछ नहीं करने वाले। मैं चुप खड़ा था और एक आम इंसान की उम्मीदों को मरते देख रहा था,वही उम्मीदें जिससे वो वोट देने को बाध्य और उत्साहित होता है। उनकी बातों में नाराजगी के साथ-साथ हताशा थी। नरेन्द्र जी सारा गुस्सा मेरे सामने ही निकाल देना चाहते थे शायद, साक्षी महाराज, साध्वी, आरएसएस से लेकर तमाम वो बयान भी बातें मुझे गिना दिए जो उन्हें पसंद नहीं आईं। लखटकिया सूट पर तो एेसी नाराजगी मानो मैंने ही उसे पहना हो।

हां, एक और बात कही जिस पर ना तो मीडिया ने ध्यान दिया और न ही किसी राजनीतिक विश्लेषक ने। उन्होंने कहा कि यह एनडीए सरकार है लेकिन इसे मीडिया ने मोदी और बीजेपी की सरकार बना कर प्रचारित किया है। जबकि सरकार में लोक जनशक्ति पार्टी के नेता रामविलास पासवान मंत्री हैं। तेलगू देशम पार्टी के अशोक गजपति राजू भी सिविल एविएशन मंत्री हैं फिर भी इसे एनडीए की सरकार क्यों नहीं कहा जाता? फिर स्कूटर पर बैठे-बैठे ही राजस्थान सरकार पर आ गए। कहा, 50 से लेकर 95 पैसे तक बिजली महंगी कर दी। लेकिन चोरी और छीजत रोक नहीं पा रहे। कोई योजना ही नहीं है, सभी नेता सिर्फ कैमरे पर चेहरा दिखाने को आतुर हैं।

कुलमिलाकर नरेन्द्र राजनीति के वर्तमान हालात से बिलकुल खुश नहीं थे और ना ही सरकारों की कार्यप्रणाली से। नाराजगी के स्वर में बोले, मंत्रालय में जासूसी हो रही है, लेकिन सरकार जासूसी में शामिल कंपनियों का नाम नहीं ले रही। नाम लेने से कांग्रेस और बीजेपी दोनों बच रही हैं।

नरेन्द्र जी की बातें हो सकता है सबका मत ना हों लेकिन ये उस आम आदमी का मत तो है जो महज कुछ महीने पहले ये सोचकर खुश हो रहा था कि अब सुशासन आएगा। लेकिन ये आम आदमी का मत था जिसे मैं स्कूटर पर बैठ कर सुन रहा था। नरेन्द्र जी की बातों को मैंने सिर्फ सुना। अंत में सिर्फ एक सवाल किया, आपने ये मत कैसे बनाया कि मोदी (एनडीए) सरकार ठीक ढंग से काम नहीं कर रही? ये सवाल मैंने इसलिए किया क्योंकि जितनी नकारात्मक छवि नरेन्द्र जी के मन में बनी, मैं उसका जरिया जानना चाह रहा था। क्योंकि मीडिया ने तो कभी प्रधानमंत्री को नकारात्मक तरीके से नहीं दिखाया। जहां सच में दिखाने की जरूरत थी वहां भी सतही रिपोर्टिंग तक हमारा मीडिया सीमित रहा। नरेन्द्र बोले, चारों तरफ साफ दिख रहा है, जमीन पर कोई असर नहीं हो रहा सिर्फ बातें हो रही हैं।

इससे साफ था कि एक आम आदमी अपना नजरिया बना रहा है वो मौका मिलने पर अपना पक्ष भी रख रहा है, जैसे नरेन्द्र ने मेरे सामने रख दिया ये जाने बिना कि मैं सुनना चाहता भी हूं या नहीं? और आम आदमी के पास  सबसे बड़ा मौका वोट का होता है, इसे किसी को भूलना नहीं चाहिए, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को भी नहीं।