Thursday 29 January 2015

देखो! पीके हमारे गोले पर सब कुछ लुल्ल नहीं है...


पीके आज सुबह तुम्हारी फिल्म देखी। अच्छी थी। पर इससे पहले शनिवार शाम के एक वाकये का ज़िक्र कर दूं। जयपुर की सर्द शाम पंडित छन्नू लाल मिश्र की ठुमरी , दादरा और भजनों से सराबोर हो रही थी। माहौल अध्यात्मिक हो रहा था। पंडित जी एक ही भजन को अलग-अलग रागों में कई-कई तरह से गा रहे थे। दर्शक उनके और तबले की जुगलबंदी पर जमकर तालीयां बजा रहे थे। आपको लाइव सुनने की चाहत थी इसलिए मैं भी वहीं था। तभी भजन गाते-गाते मिश्र रुके और बोले, क्या आपने उस्ताद ‘बिस्मिलाह खान’ को शहनाई बजाते हुए सुना है? ज्यादातर दर्शकों ने हां में सिर हिला दिया। फिर बोले, वो जो शहनाई बजाते थे, मैं उसे गाकर सुनाता हूं। फिर खान की शहनाई की धुन पंडितजी के सुर में भजन बनकर निकलने लगी। तभी लगा कि नहीं सब कुछ लुल्ल नहीं है। कुछ ‘कार’ बिरादरी है जो अभी हमें बचाकर रख सकती है। ये इस दुनिया में सिर्फ जूता ही नहीं रहने देगी।  ये किसी रॉन्ग नंबर को भी बीच में नहीं आने देगी। हां, ज्यादातर इस रॉन्ग नंबर का शिकार बन चुके हैं पर सभी नहीं।




देखो! पीके हमारे गोले पर सब कुछ लुल्ल नहीं है... सभी नहीं बने इसलिए रामपाल का किला ढह गया, आसाराम का भी खाक हो गया और तुम्हारी रिलीज डेट के दिन ही एक ने सुपरमैन अवतार में आकर खुद ही अपने दरवाजे खोल दिए। जितने भी राम थे, हैं या वो जो राम के नाम पर कुछ भी कर रहे हैं, सब खाक हो जाएंगे या हो रहे हैं, क्योंकि राम भी नहीं चाहते कोई रॉन्ग नंबर हमारे और उनके बीच में आए। खैर! तुम इस गोले पर ऐसे माहौल में आए हो जब यहां सिर्फ जूता रह जाने की कोशिश पैदा की जा रही है। सब अपने अंतर्विरोधों में फंसे हुए हैं। तुम ऐसे वक्त में नंगे होकर आए जहां हम सब कपड़े पहने हुए भी नंगे ही खड़े हैं। पर फिर भी उम्मीद तो रखनी ही चाहिए जैसे तुमने रखी थी। उम्मीद तो रखनी ही चाहिए ताकि हर जग्गू, सरफ़राज से मिल सके। उम्मीद तो रखनी ही चाहिए कि हम सब कभी तो कपड़ों के ऊपर के नंगपन को पहचानेंगे। उम्मीद इसलिए भी रखनी चाहिए कि कई सौ सालों पहले बनाए गए इस रॉन्ग नंबर के नेटवर्क से एक दिन में पीछा नहीं छूट सकता। क्योंकि तुम भी इस नेटवर्क में पहले फंसे थे फिर निकल आए, ऐसे ही हम भी निकल आएंगे बशर्ते कोई पीके इन्हें हमें हमारे अंतर्विरोधों से निकालने आ जाए। क्योंकि हम रॉन्ग नंबर को ही राइट नंबर मान चुके हैं। इसलिए उम्मीद है क्योंकि हमारे गोले पर सब कुछ लुल्ल नहीं है पीके...

Tuesday 6 January 2015

पराठा कच्चा है...

भाईसाहब ये पराठा अभी कच्चा है, थोड़ा सा और सेकिए, जबाव भी मिल गया,लेना है तो लो वरना कोई बात नहीं और वैसे भी पेट में जाकर तो सब पकना ही है। मन मसोसकर आखिर वो पराठा लेना ही पड़ा क्योंकि मजबूरी है, सुबह की भूख शांत जो करनी है,उस लड़के को जिसे अभी कॉलेज भी जाना है। चूँकि मैं भी वहीं खड़ा था और ये चंचल पत्रकार मन से रहा नहीं गया सो बोल दिया,अगर पेट में जाकर पकना है तो आटा ही क्यों नहीं खिला देते सर! पराठे वाले भाईसाहब ज़रा घूरकर देखे, लेकिन स्थिति बिगड़ने से पहले मैंने संभाल ली और एक पराठे का आर्डर दे दिया, कच्चा ही सही पर मेरी भी हालत उस लड़के जैसी ही थी।
उधर पराठा बन रहा था, इधर इंटरव्यू शुरू! मैंने पूछा,कहते हैं ग्राहक भगवान का रूप होता है, तो फिर भगवान की इतनी सी बात मानने में क्या हर्ज़? पराठा एक्सपर्ट विष्णु ने जवाब दिया, अगर हर भगवान की बात मानने लगे तो भगवान के इस भक्त की हालत खस्ता हो जाएगी। विष्णु जी का जवाब तो अजीब था और इस जवाब ने बहुत सारे सवाल मेरे ज़ेहन में और पैदा कर दिए। बातचीत के लहज़े से पूछा, क्या फायदा होता है तुम्हें? विष्णु जी बोले तुम तो पत्रकारों की तरह सवाल किए जा रहे हो यार, उन्होंने जवाब दिया,फायदा तो क्या बस गैस की थोड़ी सी बचत और थोड़ी जल्दी हो जाती है। जल्दी के चक्कर में सेहत से खिलवाड़ के सवाल पर कोई जवाब नहीं दे पाए विष्णु जी।
खैर! मेरा पराठा बनकर तैयार हो चुका था, गरमागरम कटवारिया सराय का पराठा! इसी को खाकर पराठों वाली गली के पराठों का अनुभव कर रहा था मैं। खाते-खाते पूछ लिया,फिर भी इतनी डिमांड क्यों है?ये जवाब सही और पूरी ईमानदारी से दिया गया। देखो यार! दिल्ली में हज़ारों बच्चे हर साल पढ़ने आते हैं, कुछ महीनों के लिए या ज्यादा से ज्यादा सालभर के लिए। उन्हें रहने और खाने का इंतजाम सबसे पहले करना पड़ता है। रहने के लिए पांच से छह हजार रूपए में रूम मिल जाता है, 8x8 का और सस्ता खाना हम उपलब्ध करा ही देते हैं, सिर्फ दस रुपए का पराठा! घर से बाहर, घर जैसा खाना! और हर कोई बड़े होटल पर जाकर तो नहीं खा सकता न!
मुझे अब कच्चे पराठों की वजह समझ में आई कि अगर आप मजबूर हैं तो ये कमी किसी के धंधे में चार चाँद लगा सकती है। वैसे मेरा पराठा उस लड़के से ठीक बनाया विष्णु जी ने, शायद मेरे सवाल-जवाब कम कर गए। पानी पिया, दस रुपए देते वक़्त मैंने कहा, वैसे मैं पत्रकार बिरादरी से ही हूं। विष्णु जी ने हल्की सी मुस्कराहट के साथ पैसे लिए और मैं चल पड़ा कॉलेज की तरफ, पत्रकारिता पढ़ने!

बिस्मिल्लाह की शहनाई भजन भी गाती थी...

1. मुश्ताक भाई गणेश जी को निमंत्रण देने जाएंगे तो गणेशजी क्यों नहीं आएंगे। मुश्ताक ने गाना गाकर कहा, देखो गणेश मुझे पूजा-पाठ नहीं आता पर मेरी नाक का सवाल है, भरे राजदरबार में मैं आपको बुलाने की बात कह कर आया हूं और मुश्ताक जीमण (सामूहिक भोज) का न्योता गणेशजी के पैरों में रखकर आ जाता है। गणेशजी ने मुश्ताक भाई का न्योता स्वीकार किया और जयपुर राजघराने की ओर से आयोजित जीमण में इंसान के भेष में आ गए। फिर पृथ्वी पर शुरू हुई इंसान का भगवान को ना समझ पाने की नादानी। बहुत देर से पंक्ति में लगा व्यक्ति पूछता है, भइया खाना चालू करो। पंडित जी की आवाज़ आती है अभी गणेश जी को भोग लग रहा है। पंक्ति में आगे-आगे लगे गणेश जी के साथ आए नारद बोलते हैं, गणेश जी तो मेरे साथ में हैं, पंडित जी तिरस्कार की नज़रों से नारद को देखते हैं और शायद सोचते हैं कोई मूर्ख है। तभी एक चतुर आदमी पहले जीमने के लालच में दोनों को पंक्ति में पीछे ढकेल देता है।
2. 20 दिसम्बर 2014 की सर्द शाम। जयपुर में ही छन्नू लाल मिश्र की भजन संध्या। मतलब पीके फिल्म की रिलीज के ठीक दूसरे दिन। छन्नू जी भजन ही गा रहे थे। तमाम तरह के रागों को ऐसे समझा रहे थे मानो सेन्ट्रल पार्क में बैठे सभी श्रोता उनके शिष्य हों। लोग भी आनंद ले रहे थे। सर्दी का अहसास हो रहा था तो तब जब वे थोड़ी देर के लिए रुकते। भजन गाते-गाते अचानक बोले, आपने बिस्मिलाह ख़ान को शहनाई बजाते सुना था क्या कभी? कुछेक हाथ उठे। छन्नू जी बोले, वो शहनाई से जो धुन निकालते थे, मैं गाकर सुनाता हूं। फिर बिस्मिलाह की शहनाई की धुनें भजन बनकर छन्नू जी के मुंह से निकलने लगीं।
पहला किस्सा शायद सही न हो लेकिन दूसरा एकदम सही है। पहला भले ही एक प्ले था मगर मुश्ताक के किरदार ने कितना बड़ा काम किया। इसी तरह छन्नू जी की बात को उस वक्त शायद ही लोग समझ पाए हों लेकिन उन्होंने अपने कलाकार होने का फर्ज़ अपना काम करते हुए निभा दिया। वो भी उस मुश्किल वक्त में जब धर्म की अनेक परिभाषाएं रची जा रही हों। मज़हब को केन्द्र में रखकर मॉक ड्रिल हो रही हों। धर्म को उसी राजनीति ने बहस का विषय बना दिया हो जिसे धर्म को राज्य से दूर रखने को कहा गया हो। उस समय में जब पैदा होते बच्चे भी नहीं बख्शे जा रहे। ऐसे काल में जब हम सब संगठनों के बनाए प्रोपेगेंडा में फंस चुकें हों, हर काम को उसी नज़रिए से दिखाया जा रहा हो और हम सब कुछ जानते समझते हुए भी कुछ न कर पाने की स्थिति में हों सिवाय फेसबुक पर लिखने के। उस वक्त कलाकार अपना काम कर रहा है। शायद यही कलाकार को करना भी चाहिए या यूं कहें सारी ‘कार’ बिरादरी को यही करना चाहिए जो मुस्ताक़ और जो छन्नू जी ने किया। मज़हब की दीवार किसी अर्जुन के दीवार पर निबंध सुनाने से नहीं टूटने वाली क्योंकि इस दीवार को बनाने वालों ने सिर्फ भावनाओं का इस्तेमाल किया है और कोई भावनाओं के बारे में भला कलाकार से ज्यादा कौन समझ पाता है।