जब आंसू कोर तक आ जाएं
और हिलकियां गले तक
जब बातें होठों पर हों
और जुबां सिल जाए
जब दिमाग भविष्य देख रहा हो
और दिल बीते दिनों में झूलने लगे
जब मैं 'मैं' ना रहकर तू बन रहा हो
और 'तू' तू न रहकर मैं बनने की ठान ले
जब मैं मेरे 'मैं' को छोड़कर तू बनने लगे
और तू मैं बनने की कोशिश में 'तू' भी ना बन सके
इस 'मैं-तू' के बनने-बिगड़ने से अगर बिखरने लगे सब कुछ...
तब सब कुछ छोड़ कर वैसे ही कर देना बेहतर है शायद
क्यों कि तब आसूं लौट जाएंगे कोरों से
हिलकियां बिना पानी पिये उतर जाएंगी आंतों तक
बातें बुदबुदाकर दब जाएंगी जीभ के नीचे
दिमाग स्थिर होकर सोचेगा वर्तमान को
जब...
सब कुछ छोड़कर कर दिया जाए पहले जैसा ही...
बहुत दूर से खुद को यहां तक खींच लाया हूं बहुत आगे के सफ़र तक जाने के लिए। जहां से निकले हैं और जहां तक अभी पहुंचे हैं वो एक असंभव सी यात्रा है। बीच-बीच में कई अच्छे पड़ाव मिले हैं जिनमें IIMC एक है बाकी जिंदगी के तजुर्बे बहुत कुछ सिखा ही रहे हैं। मेरी बाख़र एक कोशिश है उन पलों को समेटने की जो काफी कुछ हमें दे जाते हैं लेकिन हमारी जी जा चुकी जिंदगी में कभी शामिल नहीं हो पाते। बाकी सीखने, पढ़ने-लिखने का काम जारी है और चाहता हूं कि ये कभी खत्म न होने वाला सफ़र भी सभी से मोहब्बत के साथ चलता रहे।
Wednesday 26 December 2018
पहले जैसा
Thursday 2 August 2018
ख़ामोश आंखें
Friday 13 July 2018
कमबख़्त वो बंटवारा...कमज़र्फ ये यू-ट्यूब
Saturday 9 June 2018
अक्टूबर के फूल
उसे फूल पसंद थे। उसे फूल चुनना पसंद था। घास में पड़े फूल उठाकर कटोरी में भर लेना भी उसे बेहद पसंद था, लेकिन फूलों के गिर जाने पर उन्हें ना उठाने वाले उसे बिल्कुल पसंद नहीं थे। बेतरतीबी भी उसे पसंद नहीं थी। पसंद थे तो सिर्फ फूल। झक सुफेद जिसके माथे पर लाल बिंदी लगी होती है वही फूल। एक दिन फूल गिरा लेकिन कोई उसे समेट नहीं पाया। समेटने वाली खुद सिमट गई ICU की मशीनों से। उसके सिमटते ही घास पर चादर बिछना बंद हो गई। सारे फूल गिर कर मुरझाने लगे। फूल की खुशबू की जगह दवाइयों की गंध ने ले ली। मुरझाये फूल भी महक रहे थे लेकिन उसकी पहुंच से दूर। फिर कोई बेतरतीब आया कटोरी में फूल लेकर। मशीनों की आवाज़ों के बीच फूल उसके सिरहाने रख दिये गए। उसके नथूने फूले, फूलों ने कमाल कर दिया। बेतरतीब रोज फूल लाने लगा। वो फूल देखकर फूली नहीं समाती लेकिन ज़ाहिर नहीं कर सकती। फिर एक दिन बेतरतीब चला गया। उसका जाना फूलों की महक के जाने जैसा था। मशीनें फिर भारी होने लगीं। बेतरतीब लौट आया, महक भी लौट आई।
लेकिन जब तक वो लौटा महीना बीत चुका था। फूल खिलने का मौसम रीत गया था। वो मुरझाकर लाश बन गई थी।
वो अक्टूबर का ही महीना था। वो अक्टूबर के फूल थे...लाल बिंदी वाले।
#october #varun