Monday 1 August 2016

राजा की भैंस, भैंस होती है प्रजा की सिर्फ जानवर!

उसके बाल लगभग सफेद हो चुके हैं। घनी-तीखी मूछें भी आधी पक चुकी हैं। बांए हाथ में वही पुराने जमाने की झक पीले फीते की घड़ी। आधी बांह के जेबदार बंडी (बनियान) इसलिए दिख गई क्योंकि उसने कुर्ता उतार कर अपने आगे की सीट पर लटकाया हुआ था। मैली सी धोती और पैरों में रबर के जूतों से समझ में आ गया था कि वो एक सामान्य सा किसान आदमी है।
नए बने हाइ-वे पर फर्राटे से दौड़ रही रोडवेज बस में मैंने अपनी सीट ले ली। बैठते ही वो बंडी वाला आदमी मुझसे बात करना चाह रहा था लेकिन शायद हमारे कपड़ों का अंतर ही था जो उसे अपनी बात कहने से रोक रहा था।
मैंने ही सामने से पूछ डाला, बाबा खां जागो? मेरे इस वाक्य ने मानो उसके किन्हीं ज़ख्मों को कुरेद डाला हो। उसका चेहरा देखकर लग रहा था कि उसे यह लगा मानो मैं ही वो दुनिया का इकलौता इंसान हूं जो उसकी समस्या को उसी की भाषा में समझ कर तुरंत हल कर देगा। मेरे यह पूछने पर कि बाबा खां जागो ने भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की निज भाषा उन्नति अहे, सब भाषा कौ मूल, बिन निज भाषा ज्ञान के मिटत न हिय के शूल को सही साबित कर दिया। उसे समझ आ गया किमैं लोकल ही हूं लेकिन नौकरी के लिए किसी शहर में रह रहा हूं। 

उसने अपनी पीड़ा का पिटारा खोल दिया जिसे वह अपनी किस्मत मान रहा था लेकिन मुझे समझ आ गया कि ये किस्मत नहीं सिस्टम का मारा हुआ था। आगे की सारी बात खड़ी ब्रज बोली में हुई लेकिन मैं उस बातचीत को हिंदी में लिख रहा हूं। 

मेरी भैंस चोरी हो गई हैं, महीनाभर हो गया लेकिन कहीं पता नहीं चल रहा। 4 भैंस थीं 3 लाख रुपए की। सब जगह ढूंढ़ लिया लेकिन नहीं मिली। रिश्तेदारों से कुछ सुराग मिला है कि मदनपुर के पास किसी गांव में गूजरों का काम है ये। पुलिस में रिपोट लिखाई पर कुछ नहीं हुआ। महीनेभर से भाग रहा हूं। 15-20 गांवों में जाकर आ चुका हूं। जो जहां बताता है वहीं जा रहा हूं। 3 लाख की भैंस थीं और ढूंढ़ने में में 40-50 हजार खर्च कर दिए हैं। 2 अभी ब्याई थीं, एक चौमासे में ब्याती और एक बाखरी (सालभर से दूध देती हुई) भैंस थी। ढूंढ़ते-ढूंढ़ते कर्जा हो गया और धन-धरम से गए सो अलग। 

3 साल से अकाल है, खाने के लाले पड़े हैं। दूध बेचकर पेट पाल रहे थे। थक हार कर देवता से पुछवाई तो उसने बताया कि डांग एरिया में हैं भैंस मेरी। चोर गूजर हैं और मैं जोगी हूं, मिल भी गई तो बिना पइसा के वापस नहीं देंगे। इतना कह कर उसने मुंह बस की खिड़की की ओर फेर लिया। धंसी हुई आंखों से गिरा आंसू उसकी उन तीखी सी मूंछों में कहीं अटक गया।  

तो फिर क्यों जा रहे हो? मैंने पूछा तो बोले, देख भायले (दोस्त)  पता तो है मुझे कि कहां गई हैं मेरी भैंस और जिसने चुराई हैं उसने भी अपने रिश्तेदारों के यहां भेज दी हैं पर मुझे सुराग लगा है कि बाखरी भैंस अभी भी उसके पास है। मांग के देखूंगा अगर दे देगा तो। कुछ पैसे ले लेगा और क्या। आखिर में वो मुझसे जयपुर में नौकरी लगवा देने की बात कह कर एकदम शांत हो गया।

लेकिन जिस वक्त वो अपनी भैंस चोरी की कहानी सुना रहे थे मेरे जेहन में तुरंत आजम खान की भैंसों का ख्याल आया। राजा की भैंस, भैंस होती है और प्रजा की जानवर! राजा के लिए पूरा सिस्टम लग जाता है तो प्रजा खुद ही अपना सिस्टम डवलप करती है। देवी-देवताओं से पूछती है, रिश्ते-नातेदारों से पता करती है और वो सब करती है जो राजा कभी नहीं करता। कहने को लोकतंत्र है लेकिन जिस जाति का जहां वर्चस्व है वो वहां उतनी ही सामंती भी है। वह जानता है कि उसकी भैंस कहां हैं लेकिन वापस भी मिलेंगी तो पैसे देकर। हमारा आम आदमी रोज ऐसे ही जीता है। रोता भी है तो मुंह दूसरी तरफ फेरकर। इन तकलीफों और संघर्षों पर कोई डिबेट खड़ी नहीं होगी क्योंकि हम सब को इन्हें देखने की आदत बंद करवा दी गई है। हालांकि आप और हम जानते सब हैं लेकिन राजनीति ने हमें अपनी नजरें दे दी हैं। हम वही देखते हैं जो राजनीति हमें दिखाना चाहती है। कभी गाय तो कभी बीफ, कभी हिंदू तो कभी मुसलमान। कभी दलित तो कभी सवर्ण। कभी राष्ट्रवाद तो कभी देशद्रोह। आप और हम हर वक्त इस्तेमाल किए जा रहें हैं और हम बिना सोचे-समझे रोजाना इस्तेमाल हो भी रहे हैं।