Thursday 26 January 2017

कविता: बदरी का धमकना

डरो मत मुझसे
एक अरसे से चुप बैठी हूं कुछ कहने की आस में
लेकिन क्या?
जो कहूंगी क्या सुन लेगा ये जमाना इसी ख़ामोशी के साथ
शायद नहीं!
कुलबुलाहट हुई, अंदर कुछ टूटने लगा, बेचैनी सी मची
कोई नहीं आया तुम्हारी तरह कहने को कि जो कहना है कह दो, मैं कान कर दूंगी धीरे से तुम्हारी ओर
इसीलिए कहने की जल्दबाजी है मेरी आवाज में ये तीखापन, मेरे कहने का अंदाज़ है जिसे गूंज कह रही हो तुम, अरसे से लिए बैठी चुप्पी का विरोध है मेरी ये धमक
लेकिन तुम डरो नहीं
मेरे कहने का प्राकृतिक तरीका है ये जो सुबह से बारिश के साथ आ रहा है

Sunday 1 January 2017

दंगल: बाप के पास सपने ना हों तो हम जैसे कस्बाई बच्चे कुछ बन ही ना पाएं

टूटे-फूटे किसी किले में एक स्कूल चलता है, इतना टूटा हुआ कि सूरज ढलते ही बच्चे वहां निकलने से कतराते हैं। स्कूल के बीचों-बीच घटोतकच्छ जैसा विशाल इमली का पेड़ खड़ा है, जिसमें सैंकड़ों पत्थर अटके हुए हैं जिन्हें बच्चे इमली झड़ाने के लिए फेंकते हैं। सुबह होते ही शर्ट की जेब पर सिले किसी संगठन की पहचान लिए सैंकड़ों बच्चे उस इमली के पेड़ के नीचे खड़े होकर प्रार्थना करते हैं। जाने कितनी पीढ़ियां उन्हीं प्रार्थनाओं को करते हुए गुजर गईं, लेकिन आज तक किसी ने उन संस्कृत की प्रार्थनाओं का मतलब नहीं समझाया। मंजीरे-हारमोनियम, ढोलक और वॉयलिनों की तान पर अपने-अपने संगठनों की विचारधारा के मुताबिक हर महीने एक अलग गीत सुनने और गाने में अच्छा तो लगता है लेकिन ये उन बच्चों से गवाया क्यों जा रहा है ये शायद उन संगठनों के पहले अध्यक्षों को ही पता हो। 

अब स्कूल में कोई कैसा पढ़ाता है ये बताने की जरूरत नहीं। मीरा, सूर, रहीम और बिहारी के छंदों वाली काली लाइन के ऊपर लाल स्याही ऐसे रंगी रहती थी मानो इन चारों को शाप लगा हो कि आपकी लिखी बातों को गांव-कस्बों के इन स्कूलों में कोई मांई का लाल मास्टर समझा ही नहीं पाएगा। अंग्रेजी तो पूछो ही मत। एक-एक शब्द का अर्थ इस तरह लिखा जाता कि साल के अंत तक किताब अपने साइज से डबल हो जाती। बच्चे ट्यूशन की कॉपी या संजीव पास बुक्स से 10वीं तक काम चला लेते हैं। 
 
खैर! ये छोटी सी तस्वीर बनाने की कोशिश की है कस्बाई इलाकों में स्कूली शिक्षा की। थोड़ी बहुत इधर-उधर हो सकती है लेकिन बड़े स्तर पर हालात ऐसे ही हैं। ये तस्वीर बनाई इसीलिए है कि कल फिल्म दंगल देख ली। देखने से पहले शायद पहली बार है कि किसी फिल्म के इतने रिव्यू पढ़े और देखे। फिल्म में कोई फेमिनिज्म ढूंढ रहा था तो कोई औलाद पर एक बाप के सपने थोपने और उसे जबरदस्ती पूरा कराने का एंगल देख रहा था। फिल्म देखने से पहले मैं लगभग सारे एंगल से इत्तेफाक रख रहा था। हां, इतना समझा कि जितनों ने भी फिल्म पर लिखा, सबकी सोच एक विशेष शहरी ताने-बाने और आइडियलिज्म में लिपटे शब्दों के साथ बाहर आ रही थी। ये शब्द देखने-सुनने और पढ़ने में इतने अच्छे होते हैं कि आमिर के एक इंटरव्यू के लिए मैंने भी उन शब्दों से भरे कई सवाल डाल दिए और वे आमिर से पूछे भी गए, लेकिन कल फिल्म देखते वक्त दिमाग में भरे वे सारे शब्द एक झटके से  साफ़ हो गए।

साफ़ इसीलिए हो गए क्योंकि गांव-कस्बों में 10-12 वीं के बाद वे बच्चे 15-16 या 18 साल की उम्र में शहर की चालाक भीड़ में धकेल दिए जाते हैं। क्या करना है कुछ पता नहीं। जो उस बैच के बच्चे सबसे ज्यादा करते हैं या तो उस कोर्स में एडमिशन ले लेंगे या फिर जिस कोर्स की ‘बहार’ चल रही है उसमें। फीस की टेंशन नहीं है पापा लोन लेंगे, खेत बेचेंगे, मामा-मौसा से उधार लेंगे या तीन कमरों के घर का एक कमरा किराये पर चढ़ा देंगे। अब जब बच्चे का दिमाग उम्र के हिसाब से विकसित किया नहीं गया है, दुनियादारी से कभी किताबों के जरिए वास्ता कराया नहीं गया। अब जब कोई बाप इतना पैसा बिना सिक्योरिटी के खर्च कर रहा है तो वो क्यों ना ये सोचे कि जो मैं चाहता हूं मेरा बच्चा वही कर ले, या जो मैं ना कर सका वो ये कर ले। लड़का हो या लड़की, सपने सेक्स नहीं देखते। 
 
इसका ये भी मतलब बिलकुल नहीं है कि सारे मां-बाप ऐसा ही करते हैं या सारे बच्चे भी ऐसे ही होते हैं। लेकिन ये एक हकीकत है कि शहरों में आने तक हजारों कस्बाई बच्चों के पास अपने कोई सपने नहीं होते, वे कपड़े के उस बैग और बर्तनों के उस प्लास्टिक कट्‌टे में कुछ पहले से बुने हुए सपने भी भर कर लाते हैं जो उनके नहीं होते। इन हजारों में से सैंकड़ों होते हैं जिनके दिमाग में स्कूल के दौरान जमाई गई वो बर्फ पिघलती है और वो शहर आने के 2-3 साल बाद अपना पहला ड्रीम सोचते हैं और करते भी हैं। बाकी जिंदगी में वही करते रहते हैं जिसे उन्हें करने भेजा जाता है और वे उसे सफलतापूर्वक कर भी लेते हैं। 
 
ऐसे में महावीर फोगाट की कहानी (जी आमिर की नहीं है) मुझे उनके सामाजिक ताने-बाने, आसपास के माहौल और एक सहज बुद्धि वाले इंसान के तौर पर बहुत अच्छी लगी। चौका-चूल्हा, झाड़ू-पोंछा कराने से कहीं ज्यादा अच्छा है सुबह 5 बजे उठाकर पहलवानी कराना। हां, ये बात दीगर है कि मैं शायद भविष्य में अपने बच्चों के साथ न कर सकूं क्योंकि अब मैं शहरी हो गया हूं। मेरे बच्चे भी शायद वैसे माहौल में नहीं पढ़ेंगे-बढ़ेंगे जिनमें हम सब पढ़े-बढ़े हुए हैं। उनके दिमाग में शायद वैसी बर्फ न जमे जो अब भी गांव-देहातों में बच्चे के दिमाग में जमाई जा रही है। इसीलिए दंगल की कहानी मुझे उन हजारों-लाखों बच्चों से कनेक्ट करती है जिनके सोचने-समझने की शक्ति हमारी गांव-कस्बों की शिक्षा व्यवस्था ने लगभग खत्म कर रखी है। अगर बाप के पास सपने ना हों तो ये सच है कि हजारों कस्बाई बच्चे जिंदगी में शायद ही कुछ बन पाएं। दूसरी बात, हमारी सामान्य जिंदगी में लोगों ने आइडियलिज्म वाली इतनी बातें घुसा रखी हैं कि हम बाकी नजरियों पर सोच ही नहीं पाते।