बहुत दूर से खुद को यहां तक खींच लाया हूं बहुत आगे के सफ़र तक जाने के लिए। जहां से निकले हैं और जहां तक अभी पहुंचे हैं वो एक असंभव सी यात्रा है। बीच-बीच में कई अच्छे पड़ाव मिले हैं जिनमें IIMC एक है बाकी जिंदगी के तजुर्बे बहुत कुछ सिखा ही रहे हैं। मेरी बाख़र एक कोशिश है उन पलों को समेटने की जो काफी कुछ हमें दे जाते हैं लेकिन हमारी जी जा चुकी जिंदगी में कभी शामिल नहीं हो पाते। बाकी सीखने, पढ़ने-लिखने का काम जारी है और चाहता हूं कि ये कभी खत्म न होने वाला सफ़र भी सभी से मोहब्बत के साथ चलता रहे।
Sunday 24 December 2017
अगर ना बनती ये सड़क
Tuesday 5 December 2017
मुबारक हो मेरे गांव वालो... आपने अपनी आज़ादी गिरवी रख दी, वो भी मुफ्त में
दरअसल, हो यह रहा है कि इस समाज के दो ‘प्रभावशाली’ लोगों में झगड़ा हुआ। दोनों ने एक-दूसरे के यहां आना-जाना बंद कर दिया। अब दूसरे के यहां समाज का कोई भी आदमी अगर किसी प्रोग्राम में जा रहा है तो इधर समाज का ‘तारणहार’ बन कर बैठा पहला आदमी उसे पूरे समाज से बहिष्कृत कर दे रहा है। माफी मांगने या अगली बार नहीं जाने की बात पर ही उसे समाज में वापस लिया जा रहा है। उदाहरण के लिए समझिए कि अगर मेरे चाचा के लड़के की शादी है और वो उस दूसरे ग्रुप में हैं तो मैं वहां बहिष्कृत होने के डर से नहीं जा पाऊंगा। इसी तरह अगर दूसरे ग्रुप में मेरी बेटी का परिवार है तो मैं मेरी बेटी या दामाद या उसके परिवार के किसी सदस्य को अपने किसी कार्यक्रम में नहीं बुला पाऊंगा। अगर वो आए तो दूसरा ग्रुप उन्हें अपने यहां से बहिष्कृत कर देगा। मतलब दोनों तरफ अंधेरगर्दी है। अपनी निजी लड़ाई समाज के हजारों लोगों के कंधों पर बंदूक रख लड़ी जा रही है। गजब है।
अब किसी के लिए या सरमथुरा के ब्राह्मण समाज के लोगों के लिए बहुत मामूली या सामान्य बात हो सकती है लेकिन अगर आप इसे थोड़ी गहराई से देखेंगे तो पाएंगे कि दो शातिर लोगों ने हजारों लोगों की आज़ादी अपनी जूती के नीचे कुचल दी। इससे भी दुख की बात है कि इन हजारों लोगों ने अपनी कहीं भी, किसी के भी आने-जाने और बुलाने की आज़ादी को दो लोगों के नाम गिरवी रख दिया वो भी खुशी-खुशी। आपको पता ही नहीं चला कि दो लोग आपकी फुटबाल बनाकर खेल रहे हैं या आपने अपनी मर्जी से ही अपना दिमाग, अपने विचार और अपनी समझने की शक्ति इनके नाम की है?
अट्टाहास करते होंगे आपकी मूर्खता पर जब रात में एक साथ मिलते होंगे कभी, कहीं। क्या आपने इन्हें ये अधिकार दिया है कि ये दो लोग तय करें कि आपको कब और किसके यहां जाना है? क्या ये लोग आपके वोट से जीतकर आए हैं? (जो आते हैं वो भी ऐसा नहीं कर सकते।) तानाशाही और एक-दूसरे के लिए नफरत पैदा होने का शुरूआती चरण यही होता है। क्या आप चाहते हैं कि वो वक्त वापस लौटे जब गांव का मुखिया सिर पर साफा बांधकर आपको हुक्म दे।
यकीन मानिए आप के आस-पास बहुत बुरे लोग हैं जो किसी समाज के बनने के शुरूआती और जरूरी चीजों को ही आपसे अलग कर रहे हैं। क्या आप नहीं देख पा रहे कि आपके घर वही लोग नहीं आ पा रहे जिनका आपके आस-पास होना हमेशा बहुत जरूरी होता था? इतनी बड़ी टूटन को आप सहन कैसे कर पा रहे हैं? ये जो फैसले लिए जा रहे हैं क्या उसमें आपकी भी सहमति है? अगर नहीं तो क्या आपने उन दो लोगों को ही अपनी तकदीर लिखने का जिम्मा सौंप दिया है? या आप समझ ही नहीं पा रहे कि आपके साथ क्या गेम हो रहा है। इसे समझने का एक फॉर्मूला दे रहा हूं। अगली बार जब वे ‘प्रभावशाली’ लोग आपको कोई हुक्म दें तो उनकी आंखों में देखिएगा। शातिरी और मक्कारी नज़र आएगी। बाकी आप सब लोग समझदार हैं। बस आंख मूंदकर खुद को यूं ही समर्पित मत करिए किसी को। मैं इसे इसीलिए लिख रहा हूं क्योंकि मैं समझ पा रहा हूं कि किसी भी समाज का बिखरना, टूटना ऐसे ही शुरू होता है जैसा आजकल आपके समाज में हो रहा है।
Tuesday 14 November 2017
कविता: नंगी पीठ
जो धूप में चमक रही थी
बेतरह भूंक रहा था
मुझे सूंघता हुआ बस के अड्डे तक
मेरे साथ-साथ गया
इस बात पर सहमत हो गए
कि आदमी की नंगी पीठ
उसके चेहरे से ज़्यादा दिलचस्प होती है
ज़्यादा तर्कसंगत।
दरारों की रोशनी
जिसकी छत नहीं है
इस घरोंदे की चौहद्दी दो कदम बढ़ते ही खत्म हो जाती है
बाहर खड़े हैं दो नीम के पेड़ और जड़ हुए पति-पत्नी
इधर-उधर खेल रहे हैं कुछ मेमने और तीन बच्चे
गृहस्थी के नाम पर चार बासन और एक संदूक साथ में एक चूल्हा
ज़िन्दगी नीम की छायां में पड़ी मौत का इंतज़ार कर रही है
और मौत घर में पड़े 1 किलो गेहूं को देख ज़िन्दगी को प्यार से सहला रही है!
दुख, दरिद्रता, बीमारी सब कुछ तो है और क्या चाहिए बाबू फोटू के लिए?
मैं मोहब्बत और कुछ रोशनी ढूंढ रहा था!!!
यहां?
जहां मौत भी तसल्ली से आती है, अपना रुआब दिखलाकर...
नहीं ढूंढ पाओगे। क्योंकि
ये दूर शहर से यहां तक सड़कें इसलिये ही तो बिछाई हैं ताकि ये सब देख सको। देखो कुछ भी नहीं है सिवा 2 बकरी, चार भांडे और 5 जान के।
नहीं ऐसा हो तो नहीं सकता, मोहब्बत होगी तो जरूर!
देखो मुझे दिख गई।
इस माटी की बिखरी-चटकी सी दीवार पर जो तस्वीर टंगी है ना मालाराम के पिता की वही मोहब्बत है।
अच्छा और फिर रोशनी कहां है?
तस्वीर के ठीक नीचे आरे में सलीके से रखी दो किताबों को देखो तो ज़रा
मशाल से कम रोशनी नहीं है इनकी
वो दिन आएगा जब ये छत सिल जाएगी और मौत का अंधेरा इस रोशनी में फीका पड़ जाएगा... क्योंकि सदा नहीं रहेगा ये घरोंदा दरारों भरा।
Monday 6 November 2017
सुरों की परवरिश में रात भर रहा चांद, सुबह के सूरज से विदाई
वही रात के 10 बजे हैं, लोग वैसे ही मसनदों पर पीठ टिकाकर आधे बैठे और आधे लेट गए हैं। कार्यक्रम है ‘राग’ जो रातभर क्लासिकल म्यूजिक की धुनों से सजा होता है। इस बार भी आसमान में अकेला चांद है। लग रहा है जैसे आसमान के सारे परदे हटा कर सब कुछ देख लेना चाहता है। हम सब के बीच में शायद चांद ही है जो आज अपने आप में पूरा है लेकिन फिर भी मौजूद है, पता नहीं क्यों? जब मैं यहां पहुंचा तो मंच पर पद्मविभूषण हरिप्रसाद चौरसिया अधरों पर बांसुरी सजाए बैठे थे और हवा में महात्मा गांधी का फेवरेट भजन वैष्णव जन तैर रहा है। मैं सोच रहा था अगर गांधीजी यहां होते तो चौरसिया जी को क्या बोलते? हालांकि इनकी तबीयत थोड़ी नासाज़ है लेकिन अपनी बांसुरी से वह न जाने कितनों की तबीयत खुश कर रहे हैं। किसी कलाकार का समाज में सबसे बड़ा योगदान शायद यही होता है कि उसका जो भी होता है वह सबका होता है। चूंकि शनिवार का दिन दीप दिवाली, गुरूनानक पर्व का भी था तो माहौल में अपने आप त्योहारी रंगत है।
दैनिक भास्कर जयपुर 07-11-2017 |
दैनिक भास्कर 13-11-2016 |
Sunday 15 October 2017
Saturday 14 October 2017
फोहे जैसे गुलज़ार...
ये दोपहर भी ऐसी थी मानो थार में कोई रेत का बबंडर उठ कर शांत हो गया हो। हम सब उस मेमने की तरह थे जो उस शांति को जीने के लिए एक झोंपड़ी में बंद हो गया था। शाम हुई लेकिन बड़ी अलसाई सी। कुछ नमी के साथ लेकिन इस शाम में इंतज़ार बहुत था। तभी सुना कि गुलज़ार हो गई है, लेकिन क्या? शाम या ये सड़कों पर तैरती रात? नहीं, वही रात जो हर रात नहीं होती इस शहर में। सच में गुलज़ार आए हैं, अपने गुरु केदारनाथ सिंह के साथ। सफेद झक कुर्ते में , मानो हाथ लगाया तो काट देगा ये कुर्ता, ये कहता हुआ, सावधान छुआ तो।
आवाज़ में पहाड़ सी कशिश और नदी सी गहराई लिए हुए ये सफेद मूछों वाला आदमी खुद चांद क्यों नहीं हो जाता? कहता है, चांद पे मेरा कॉपी राइट है। वो भी ऐसा कि आप उसे बहरूपिया तक कह देता है।
अब थोड़ा हिमालय से बूढ़े लेकिन उतने ही नए पहाड़ जैसे केदारनाथ सिंह को देखिए। गुलज़ार मीठा-खट्टा सा मुरब्बा हैं तो केदारनाथ उस मुरब्बे को समेटे, ढंके मर्तबान। 'उसका हाथ अपने हाथ में लेते हुए मैंने सोचा दुनिया को हाथ की तरह गर्म और सुंदर होना चाहिए'। हाय! ये गुरु ऐसा है तो चेला क्या होगा। होगा नहीं, है जिसने चांद को खरीदा हुआ है, अपनी नज़्मों से, अपनी आवाज़ से। कभी उसे पहाड़ पे उतारता है तो कभी किसी फुटपाथ पर उतार लाता है। कभी-कभी क्यों लगता है कि गुलज़ार से चांद है या चांद से गुलज़ार? नासा की कोई रिपोर्ट नहीं आई क्या कभी इस पर? और ये कैसा गुरु है जिसे हम युवाओं की इतनी भी फ़िक्र नहीं है कि अपनी ये दो लाइन की कविता की तारीख हमें बता सके।
जब कवि की रचना उसके नाम से आगे निकल जाए तो वो कवि मुकम्मल हो जाता है, चेले ने ऐसा कहा। शायद गुरु ने इसे बहुत सीरियसली ले लिया, बचपने में लिख दी दी गई ये बहुतों की जवानी सुंदर बना रही है, नूर मियां के केदारनाथ सिंह।
इस गुलज़ार रात को यूं खामोश कर के चल दिए आप दोनों बूढ़े। इस छोड़ी हुई रात का हम क्या करें? ओढ़ कर सो जाएं या सोते हुए आपके पहाड़ पर उतरे चांद को निहारते रहें, फोहे जैसे गुलज़ार....
Monday 2 October 2017
गानों का सामाजिक वितरण क्या है?
वैसे गाने सुनना और पसंद/ नापसंद निजी मसला है लेकिन जब कभी मैं ऐसे गाने सुनता हूं जो पहले नहीं सुने तो सोचता हूं कि गानों का सामाजिक वर्गीकरण और वितरण कैसे हुआ होगा? कैसे कोई गाना हम तक पहुंचा होगा और कैसे कोई हमारी पहुंच से दूर हुआ होगा। कोई गाना जो हम तक नहीं पहुंचा वो किसी ड्राइवर के पास किस तरह पहुंचा होगा? सुनिए, दिलवाले जानी ओ.... आकर मेरा सबकुछ चुरा ले एक मिनट की बात है...।
सलीम और अनारकली की अधिकतर बातें मुग़ले आज़म के ज़रिए हम तक शानदार स्क्रिप्ट, जानदार डायलॉग और फ़िल्म के साहित्यिक/ ऐतिहासिक बैकग्राउंड से पहुंची हैं लेकिन सड़क पर चलने वाले एक तबके में ये किस तरह जा बैठे, सुनिए। सलीम- अनारकली... तेरे सर की कसम, चाहूंगा तुझे जब तक है दम। अनारकली का क्रांतिकारी जवाब- कोई सितमगर अब ना आएगा, दीवारों में अब ना चुन पाएगा। सलीम मेरे...
इस बात पर कोई विश्लेषण या शोध हुआ है क्या? मुझे नहीं पता लेकिन अगर नहीं हुआ हो तो होना चाहिए कि किसी गाने का समाज के अंदर बने समाजों में पहुंच कैसे होती है, प्रक्रिया क्या है उसकी?
एक और सुनें- तूने किया था वादा, अब ना बदल इरादा, वादे से मुकर जाऊं तू हां कर दे, मेरे सीने से लग जा तू ठां कर के...।
वैसे बापू को कौनसा गाना पसंद था?
Saturday 16 September 2017
जब कुछ होता ही नहीं तो फिर हम लिखते ही क्यों हैं?
Friday 19 May 2017
अमित नायर, संतोष की हत्या और शातिर राजनीतिक चुप्पी!
बाप का नाम जीवनराम है, जिसके इशारे पर चली 4 गोलियों ने बेटी ममता के जीवन का सच खत्म कर दिया। बंदूक से निकली गोलियां अमित के सीने, गर्दन और पैरों में ही नहीं धंसी बल्कि जा धंसी हैं सत्ता के उन खिलाड़ियों के ट्विटर कीबोर्ड पर, जहां से हर हगने-मूतने जैसी बातों पर भी ट्वीट आते हैं हर घड़ी।
गहलोत जी ने खबर साझा कर दुख बांट दिया, सचिन जी ने फेसबुक पर लिखा वर्जननुमा फ़ोटो चस्पा कर दिया है।
मैडम अभी धौलपुर दौरे पर हैं। कल से 27 ट्वीट-रिट्वीट कर चुकी हैं लेकिन उनमें कहीं अमित नायर नहीं है।
खैर! मां का नाम भगवती है मतलब अपने बच्चों की रक्षा करने वाली। साथ में आई थी लोडेड रिवाल्वर लगाकर आए शूटर के और दरवाजा खटखटाया था। एक औरत ने जिस बेटी को अपनी छाती से लगाकर दूध पिलाया उसी का घरोंदा बिखेर दिया, वो बेटी भी 3 महीने बाद एक संतान को अपनी छाती से चिपका कर दूध पिलाएगी।
अब बचे हुए कुछ दोस्त हैं जो #justice4amitnair अभियान चला रहे हैं। और कर भी क्या सकते हैं विरोध करने की ताकत को हमसे सरकारें सड़कों से छीन कर कब का ट्विटर पर ला चुकी हैं, नेताओं की तारीफ करते हुए हमें पता ही नहीं चला। फिर भी उम्मीद बाकी है क्यों कि सुना है प्रेम में बड़ी ताकत होती है। दोस्तों ने अमित के नाम से ट्विटर हैंडल बनाया है, एड्रेस में लिखा है, 'मेरी हत्या इसीलिए कर दी गई क्योंकि मैंने प्रेम किया था'। अमित की रूह मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे को टैग कर पूछ रही है, मुझे इंसाफ चाहिए, क्या मिलेगा इंसाफ?
लेकिन मैं पूछता हूँ किससे? इंसाफ दिलाने के लिए जिसे चुनाव जिताया है वो पहले ही कह चुका है, हर दरवाजे पर पुलिस तैनात नहीं कर सकते, इस जीते हुए आदमी को राजस्थान का गृहमंत्री कहते हैं।
हालांकि मेरा सवाल फिर वही है इंसाफ किससे चाहिए? नेताओं के ट्वीट से या उस सोच से जो अमित की हत्या के अगले दिन फिर घटी?
वो सोच जो शादी के 15 साल बाद अपनी बीवी को इसलिए मार देता है क्योंकि वो अनपढ़ थी, साथ में उस मां को भी जो किसी की बेटी को उसके लिए ब्याह कर लाई थी। भले खुद 2012 तक उन्हीं मां-बाप की रोटियों पर पल रहा था।