Saturday 16 September 2017

जब कुछ होता ही नहीं तो फिर हम लिखते ही क्यों हैं?

अभी मैं जहां बैठा हूं उसके ठीक बगल में एक पोस्टर लगा है, चार्ल्स बुकोस्की की कविता का ट्रांसलेशन है जो वरूण ग्रोवर ने किया है। ‘अगर फूट के ना निकले बिना किसी वजह के मत लिखो...’ लेकिन ये सब पढ़ते हुए मैं सोच रहा हूं कि हम लिखते ही क्यों हैं, लिख देने भर से क्या होता है? हमारा सोच-समझ कर लिखना भी क्या कुछ बदलता है? लिखना क्या सिर्फ खुद के मन में उठ रहे सवालों को किसी कागज पर उगल देना भर है या एक पत्रकार के तौर हमारा लिख देना ही हमें हमारी जिम्मेदारी से मुक्त कर देना है? जिसके लिए लिखते हैं उसके जीवन में भी कुछ बदलता है या नहीं? ये सवाल इसीलिए क्योंकि 4 साल के करियर में 2 साल खूब घूमा, कई ग्राउंड रिपोर्ट्स की, बुरे हालातों पर लिखा लेकिन बदला क्या? मुझे लगता है कुछ नहीं। ऐसा इसीलिए कि इन्हीं गर्मियों में मेरा सांभर लेक जाना हुआ। मकसद सिर्फ घूमना था क्योंकि सांभर कभी देखा नहीं था। सुबह का सुंदर सूरज उगते हुए देखा, गुलाबी फ्लेमिंगो देखी, उनके टूटे पंखों को समेटा,फोटो खींचे जिनमें से एक मेरे मोबाइल का वालपेपर है। दिन चढ़ता गया, सांभर का दूर-दूर तक फैला नमक कश्मीर सी बर्फ नजर आने लगा। 9.30 बजे और नमक उलींचने वाले लोग क्यारियों में उतरने लगे। इन क्यारियों में उतरने वालों में 3 साल की बच्ची से लेकर 70 साल के बूढ़े तक थे।

एक छोटी सी मालगाड़ी भी दिखने लगी जिसमें क्यारियों से उलींचा गया नमक एक जगह पहुंचाया जा रहा था। मैं क्यारियों में उतरे हुए लोगों के बीच पहुंच गया। बच्चों के सिर पर लदे 5-7 किलो नमक के तसले देखे, नमक की चमक से आंखें खो बैठे बूढ़ों को देखा, गले हुए पैरों और पीठ से बंधे बच्चे के साथ नमक निकालते उस औरत को देखा जो 16 की उम्र में ही 2 बार मां बन चुकी है। एक ऐसा काला और डरावना सच जो  उस खूबसूरत उगते सूरज, चहक रही फ्लेमिंगो के शोर की पीछे दबा हुआ सिसक रहा था।