मुझे खोआ (मावे) वाले तिल के लड्डू ही अच्छे लगते हैं, वही लाना। नहीं,
मम्मी मेरे लिए तो गुड़ वाले ही लाना और बर्फी भी ले आना। यार मम्मी रिफाइंड ऑयल खा-खा
के परेशान हो गए इस बार सरसों का तेल ले आना, यहां तो पैक्ड मिलता है। अच्छा अचार भी
तो लाना, हमारा खत्म हो गया है। और घी तो बिलकुल ही मत भूलना, 8 दिन से खत्म हुआ है
हम पराठे खा रहे हैं रोज।
…और इस तरह की फरमाइशों का सिलसिला फोन पर घंटों चलता
है हम भाई-बहिनों का मां के साथ। मैं क्या तुम्हारे पिताजी की नौकर हूं, मारसाब! क्या
अलग से तनखा देते हैं मुझे इस काम की? इस तरह की चुटकियों के साथ अंत में मां कहती
हैं, कल आएंगे मैं और पापा और क्या लाना है? इस तरह दो-चार चीजें सामान की लिस्ट में
और शामिल हो जाती हैं। जयपुर पहुंचते-पहुंचते 20 पापा के 15 फोन कॉल आ जाते हैं, यहां
तक पहुंच गए, वहां तक पहुंच गए। ट्रेक्टर की तरह लदकर आ रहे मां-बाप को हम झिड़क के
साथ कह देते हैं, तो आ जाओ नारायण सिंह उतरकर ऑटो कर लेना, मैं शाम को मिलूंगा। यार! ऑटो वाला 150 रुपए ले रहा है, हां तो पापा जितने
ले रहा है दे दो वैसे 120 ही लगते हैं और फोन चालू छोड़ दुनिया के हर पापा की तरह मेरे
पापा भी 30 रुपए के लिए ऑटो वाले से बहस में उलझ जाते हैं।
शाम को पहुंचकर माहौल देखता हूं तो वो टू-बीएचके मकान घर में बदल जाता
है। जो भी चीजें बोली थीं सब 5-5 किलो के पैक में तैयार हैं, कमरा आधा भरा हुआ सा लगता
है। खाना तैयार मिलता है और सब्जी के अलावा 5-6 आइटम थाली में और सजे होते हैं। देसी
के नाम पर जिन सामानों से वो लदकर आते हैं एकबारगी हंसी ही छूट जाती है फिर सोचता हूं
क्या हम भी ऐसे मां-बाप बन पाएंगे? फरमाइशी चीजों के अलावा और भी बहुत कुछ है जो छोटे-छोटे
डब्बों में रखा हुआ है। बाजरे का थोड़ा सा आटा भी लाई हूं, सीजन में खाई नहीं होंगी
इसलिए ले आई और इस बार बर्फी में गोला (कोकोनट) डाला है, खाके देख मस्त बनी है। छाछ
भी लाई हूं ले ले, मम्मी सर्दी है, हां तो ले ले थोड़ी सी घर की है ताजा, खट्टी नहीं
है। तिल के लड्डू भी ले ले। आज रोटी में घी नहीं है, घी में रोटी है क्योंकि घी एकदम
देसी है पूरे 700 रुपए किलो का।
इतनी देर तक ऑफिस में क्या कर रहा था, इतने से कपड़े ही क्यों पहन रखे हैं,
दिन में क्या खाया, ले अब खा सब लाई हूं जो तूने कहा था। ये मां के सवाल होते हैं।
और तो माधव बाबू आज क्या उपलब्धि रही ऑफिस की? ये सवाल पापा का होता है।
हर बार की तरह एक ही जवाब होता है, क्या होगी बस रोजाना की तरह। खाने-वाने के बाद शुरू
होती हैं मां की शिकायतें। कल मुझे दिखाना, नींद नहीं आती थाइराइड बढ़ गया है, एलर्जी
भी बहुत है और एक कुछ पहनने को दिलाना पतला सा, है नहीं मेरे पास। हम सब सिर्फ ओके
कहते हैं। इस तरह करीब 8-10 दिन लगता है जयपुर की इस गली में एक गांव बस गया है।
दिल से गांवड़े हम सब लोग ऑफिस के बहाने शहरों में शहरी बनने की झूठी कोशिश
करते रहते हैं। अाज टाइम नहीं है कल चलेंगे जैसे चलताऊ से बहानों से उन्हें टालते रहते
हैं, मन नहीं मानता और ऑफिस से लगभग बंक मारकर फिर उनके साथ जाता हूं। डॉक्टर को दिखाता
हूं, हल्का वूलन स्वेटर भी दिलाता हूं और अंत में कहता हूं, हो गया और तो नहीं चाहिए
कुछ? नहीं अब सारे काम हो गए हमारे कल हम अपने घर की रवानगी लेंगे। वो हर बार की तरह ही अगले
दिन चली जाती हैं, हमारा टू-बीएचके घर फिर से मकान हो जाता है। हम पहले की तरह फिर
से बनावटी शहरी हो जाते हैं। सब कुछ टाइम और शेड्यूल से चलने लगता है। जिंदगी फिर से
घंटों में बंट जाती है। थिंक्स टू डू वाली डायरी फिर से निकल आती है और कुछ दिनों की
वो मिट्टी से सनी जिंदगी मेरे लिए तो ऐसे ही यादों में दर्ज होती जाती है क्योंकि हर
बार हमारे यहां मां अपने घर जाने के लिए ही आती हैं।