Sunday 31 May 2015

गुर्जर आंदोलन और उसमें सांस्कृतिक योगदान

करीब 10 दिन तक चला इस बार का गुर्जर आरक्षण आंदोलन फिर एक बार ख़त्म हुआ. कुछ समझौते हुए जिन पर सरकार और गूजरों में बात बनी है. इन सब टेक्निकल बातों पर फिर कभी लिखना होगा लेकिन जब आंदोलन से जुड़े वीडियो में यू-ट्यूब पर खोज रहा था तो कुछ कमाल का मिला हालांकि इससे मैं अनजान तो नहीं था लेकिन इस नज़रिये से पहले इन वीडियो को देखा नहीं था.

इन्हें देखने के बाद कुछ सवाल मेरे मन में उठे कि क्या किसी आंदोलन में उभरे नेता ही उस आंदोलन की सफलता या विफलता के हकदार होते हैं या सफल या विफल होने पर भी वही इतिहास में दर्ज़ होंगे? विडियोज को देखने के बाद जवाब आया, शायद नहीं, पटरियों पर हजारों लोग भले ही बैठे हों पर उसी समाज के सैंकड़ों लोग और मोर्चों पर भी काम कर रहे होते हैं.

आंदोलन सही है/था या नहीं की बहस को छोड़ दिया जाए तो यू-ट्यूब पर टहलते हुए कुछ और समझ आया. जो गीत यू-ट्यूब पर मिले उन्हें स्थानीय (ब्रज) भाषा में रसिया कहते हैं. देखा तो इस बात की समझदारी और बढ़ी कि हमारे भारतीय समाज में कैसे एक नेता को गढ़ा जाता है. जन सामान्य में किस तरह उसे स्वीकार्य बनाया जाता है और अलग-अलग तरीकों से कैसे अपनी बात को आगे बढ़ाया जाता है.

भारतीय राजनीति में नेता एेसे ही गढ़े जाते रहे हैं, तरीके अलग-अलग हो सकते हैं. इन वीडियोज को देखने से समझेंगे कि कर्नल किरोड़ी बैंसला सिर्फ पटरियों पर बैठकर और मीडिया से बात कर नेता नहीं बने, उन्हें सामान्य ऊंट चराने वाला और शहर-कस्बों में आकर दूध बेचने वालों में मशहूर एेसे ही रसियों ने किया,जिनकी पहुंच एेसे गूजरों तक है जहां किरोड़ी शायद ही कभी पहुंच पाए होंगे या पहुंचेंगे.



पटरी पर बैठे उन गूजरों को घरों से खाना बनाकर भेजती उन गुर्जर औरतों का भी उतना ही हाथ है जितना कि पटरियों की क्लिप उखाड़ते हाथों का है. “राम सौ लगे जीजी राम सौ लगे, ठाड़ौ भाषण दै रो कर्नल भगवान सौ लगे” मतलब खड़े-खड़े भाषण देते हुए कर्नल भगवान राम से लग रहे हैं. यही वो गीत या वो संस्कृति है जिनकी वजह से किरोड़ी सामान्य गूजरों में अपनी पहचान बना सके हैं.

 राम के जैसा बना दिया गया पूर्वी राजस्थान के एक छोटे से गांव में जन्मा साधारण सा आदमी यूं ही भीलवाड़ा के गूजरों में पहचान नहीं बना सकता! दरअसल, किसी भी आंदोलन में लोकगीतों और संस्कृति का अपना योगदान होता है. अन्ना आंदोलन के उन गिटार वाले लड़कों को कौन भूला होगा अभी तक!

वैसे हमारे ब्रज में लोकगीत खासकर ख्याल और रसिया का चलन बहुत सिमट सा गया है, बहुत कम उस पीढ़ी के लोग बचे हैं जो रसिया बनाते हैं और उन्हें संगीतबद्ध करते हैं लेकिन जब पटरियों पर 45 डिग्री की गर्मी में सिर्फ लोगों को नेता लोगों के इशारे पर ही काम करना हो तो बैठे-ठाले करें भी क्या? ‘पुड़िया आरक्षन की तोसे पैले लैगौ मुड़िया (कर्नल बैंसला का गांव) वारौ…’

हालांकि मैंने कभी आंदोलन को उनके बीच जाकर कभी नहीं देखा लेकिन उसी इलाके से हूं तो इतना जानता ही हूं इतने मस्त लोग कि इतनी गर्मी में बस में चलते हुए भी रसिया गाने लगते हैं. कुछ ऐसा ही राजस्थान विधानसभा चुनाव के दौरान हुआ था जब किरोड़ी मीणा ने ‘राजपा’ पार्टी बनाई तो एक गाना बनाया गया जो सभी तरह के लोगों को समझ में आए. हिंदी के अलावा स्थानीय भाषा में भी ऐसे ही गाने बनाए जो लोगों को अपील करे.
कुछ ऐसा ही गुर्जर आंदोलन में भी हुआ. ‘जैपुर में अड़ गयो बैंसला, जभे हटेगो कर केँ फैंसला’, ‘आरक्षन कौ लफड़ो फंस गौ, जीजी (बहन) मेरौ बैंसला तौ अड़ गौ’… 

ये ब्लॉग ' Faltu Khabar' पर भी प्रकाशित हो चुका है।

Monday 18 May 2015

'उस्ताद' बाघ के नाम सॉरी वाला ख़त

प्यारे उस्ताद! सबसे पहले सॉरी। तुम्हारी इस हालत के लिए! मैं भी पढ़ रहा हूँ 4 दिन से सब...इतना ही समझा कि तुम बेक़सूर हो। तुम्हारा इतिहास भी पढ़ने की कोशिश की तो पता चला कि तुम थोड़े शरारती हो लेकिन बाघों की इस शरारत को हम इंसान 'हिंसा' कहते हैं और तुम्हारे पानी पीने के साधारण काम को तुम्हारी 'अदा'। क्योंकि तुम्हारी इस ‛अदा' के दरअसल हमसे पैसे वसूले जाते हैं।

खैर! मामला इतना सा है कि रणथंभौर में तुम्हारे 40000 वर्ग किलोमीटर के घर में इंसान घुसे और तुमने अपना घर बचाने के लिए अपनी शरारत का इस्तेमाल किया और इसमें उसकी मौत हो गई, ये शरारत तुम 4 बार कर चुके हो। लेकिन 'शरारती उस्ताद' शायद तुम्हें नहीं पता 'गांधी' के इस देश में ऐसी शरारतें स्वीकार नहीं हैं। तुम्हें सज़ा दी जाएगी... और तुम्हें सज़ा दी भी गयी है। आखिर सरकारें बनी ही क्यों हैं? तुम्हें सज़ा मिली है कि अब तुम्हारा घर 40000 वर्ग किलोमीटर से घटा कर 10000 वर्ग किलोमीटर कर दिया गया है जिसमें तुम शिफ्ट किए जा चुके हो। आज पढ़ा कि तुमने कुछ खाया नहीं, जिसका एक पल में घर उजाड़ दिया गया हो उसके गले निवाला उतर भी कैसे सकता है भला!

रणथम्भोर से उदयपुर के सज्जनगढ़ पार्क तक का बेहोशी का सफ़र भले तुम्हें याद ना हो लेकिन उस बेहोशी में तुम्हें 'नूर' का ख्याल तो आया ही होगा। वही नूर जो अपने दो शावकों के साथ अक्सर तुम्हारे साथ दिखती थी। शनिवार सुबह भी तुमने एक साथ शिकार खाया था। उस्ताद शायद तुम्हें पता नहीं लेकिन वो रविवार से तुम्हें ढूंढ रही है। जहां से तुम्हें बेहोश कर सज्जनगढ़ ले जाया गया वो मगरदेह नाम की उस जगह भी गई, काफी देर तक कुछ सूंघती रही पर तुम्हारा कोई सुराग नहीं लगा पाई वो बेचारी!

तुम्हें एक राज़ की बात बता दूं 'उस्ताद'? तुम बहुत अच्छी किस्मत लेकर पैदा हुए कि कोई सरकारी गोली तुम्हारी खोपड़ी में नहीं घुसी!! क्योंकि तुम्हें खूंखार घोषित किया जा चुका है।

बस आश्चर्य तो ये है कि जिसे तुम्हारी सुरक्षा का ज़िम्मा दिया गया वो 'मंत्री' कह रहे हैं कि कुछ 'टेक्निकल' कारण हैं जिनकी वजह से तुम्हें वहां शिफ्ट किया गया है और वो 'टेक्निकल कारण' मुझसे ज्यादा तुम जानते हो क्योंकि तुम अब तक वहीँ 'टूरिस्ट टेररिज्म' की कैपिटल बन चुके रणथंभौर में रहे हो। तुमने घर बचाने की कोशिश क्या की उन्होंने तुम्हारा घर ही उजाड़ दिया, खासकर उन्होंने जो कभी अपना 'घर' भी न संभाल सके।

खैर! अब तुम उदयपुर के सज्जनगढ़ पार्क में शिफ्ट हो चुके हो,छोटे से घर में। वहां इन बेवफा लोगों ने किसी 'दामिनी' को तुम्हारे लिए छोड़ा हुआ है,कोशिश करना वहां के जैसे होने की क्योंकि तुम्हारे पास कोई आप्शन भी नहीं है शायद! और हां मेरी सॉरी एक्सेप्ट मत करना प्लीज! वरना हम लोग तेरी नूर को भी कहीं दूर भेजने में वक़्त नहीं लगाएंगे। हां, हो सके तो किसी जंगल के कोर्ट में अपील कर दो शायद तुम्हें न्याय मिले!





Friday 8 May 2015

मतलब किडनी की बीमारी बुखार की गोली से ठीक कर रहे थे मेरे पापा...

पता है माधव जी, मेरे पिताजी इतनी बीमारी में भी इतने मजबूत थे कि किडनी-सिडनी सब खराब है फिर भी कह रहे हैं कि ला यार एक कॉम्बीफ्लेम दे दे, बुखार सा हो रहा है। मतलब किडनी की बीमारी बुखार की गोली से ठीक रहे थे। पर हमें पहले तो पता ही नहीं चला, साले डॉक्टरों ने बताया ही नहीं कि उनकी बॉडी में अंदर कुछ बचा ही नहीं है। पता चला तब तक तो बहुत देर हो गई थी। मेरे लिए भटूरे बनाते-बनाते अर्जुन अपने पिता की मौत की कहानी सुना रहा था आज सुबह।

अक्सर सुबह 10 बजे के आस-पास जोरों की भूख लगती है तो अर्जुन के छोले-भटूरे की रेहड़ी पर चला जाता था। 15-20 दिन से वो दिख नहीं रहा था, आज दिखा तो सिर पर छोटे-छोटे बाल उगे थे। मैंने पहले वाले अंदाज में ही पूछ लिया, मुझे तो लगा अर्जुन महाभारत लड़ने गया है। हां, भाई महाभारत ही लड़ रहा था, हार कर आया हूं। पिताजी खत्म हो गए। ओह! बस एक ही तस्वीर आंखों के सामने आई, मैं उनका पहला ग्राहक हुआ करता था और वही चेहरा भटूरे तलने के लिए कढ़ाई में तेल डालता था। कैसे? अरे! बॉडी में कुछ बचा ही नहीं था उनके। मतलब गुर्दे, किडनी सब खत्म...। हम थोड़ा लापरवाही में ले गए और डॉक्टर भी। एसएमएस (राजस्थान का सबसे बड़ा अस्पताल) में ले गए, एक्स-रे किया और कहा कि सब ठीक है, मैंने कहा कि डॉक्टर साब ये पेट में दर्द बताते हैं। फिर डॉक्टरों ने बड़ी जांचें की तो पता चला। आईसीयू में भर्ती किया, सबको लगा कि ठीक हो जाएंगे, डॉक्टरों को भी। लेकिन पेशाब रुक गया उनका, नली डाली तब पेशाब गए। लेकिन रात में सब गड़बड़ हो गया, डॉक्टर बोले, अस्पताल में रखोगे तो कुछ घंटे ज्यादा ही जी पाएंगे बस, हम उन्हें घर ले आए, डॉक्टरों ने 4 घंटे के लिए बोला था लेकिन 10घंटे जी गए मेरे पापा! सबसे आंख मिलाईं औऱ रात के 1.30 बजे चले गए। 17 अप्रैल को। हां, पर दुकान के व्यवहारियों ने बहुत हैल्प की, सारे के सारे पहुंचे थे, यार, ये नहीं पहुंचेंगे तो कौन पहुंचता फिर? शर्मिंदा सा होते हुए मैंने ये बोला था क्योंकि मैंने तो किसी से पूछने की कोशिश भी नहीं की कि अर्जुन क्यों नहीं आ रहा?

अर्जुन रेहड़ी पर अपना सामान सजाते हुए सब बता रहा था और मैं बाइक पर बैठे-बैठे पता नहीं कैसे सुन पा रहा था। तो यार! यहां तो ठीक दिखाई देते थे, हां माधव जी! उन्होंने हमें पता ही नहीं चलने दिया, 60 के ही थे बस। पर मेरे पापा थे बहुत मस्त और दिलेर आदमी। अर्जुन की आवाज में रुलाई नहीं थी पर उसका मन अस्पताल के उस बेड पर था। कढ़ाई साफ करते हुए बोल बैठा, पापा करते थे इसे साफ...।  9 बजे वो आते थे और 10बजे मैं। तब तक सब तैयार मिलता था मुझे, कढ़ाई साफ, 2 बाल्टियों में पानी, रेहड़ी के ऊपर तिरपाल सब तैयार, चाय भी। मेरे आते ही चाय पिलाते। मैं तो सिर्फ भटूरे निकालता था, आपके लिए। अाज थोड़ा लेट हो गया हूं आप आधे घंटे में आ जाइए।

अच्छा कहकर मैं वापस ऑफिस आ गया। एक घंटे बाद गया तब अर्जुन चाय बना रहा था, अपने और आसपास के रेहड़ी वालों के लिए। बगल की दुकान वाले भी एक अंकल आ गए, अर्जुन अपने पिता की मौत का अब मनोवैज्ञानिक विश्लेषण कर रहा था, उन शख्स से बोला (नाम भूल गया उनका) 15-20 साल बाद जब आप ऊपर जाएं तो पता करना आदमी मरके कहां जाता है? इस सवाल में शायद अर्जुन अपने पिता को ढूंढ़ने की कोशिश कर रहा था। वो अंकल दार्शनिक होकर बोल रहे थे, ये पता चल जाए तो आदमी वहां भी पहुंच जाए, धंधा करने। अंकल हंस दिए, मैं भी पर अर्जुन ने इस बात पर क्या पता की तरह हाथ घुमाया। पहले पुड़ी जैसे दो भटूरे निकाले, एक भगवान को चढ़ाया औऱ दूसरा भट्टी को, पहले की तरह ही फिर मुझे थाली दे दी।

पहले की तरह ही अर्जुन सब काम कर रहा था, वैसी ही बात, वैसा ही स्वाद और वैसा ही व्यवहार पर अपनी कमी वो पैसों की पेटी में लगी अपने पिता की पासपोर्ट साइट फोटो में पूरी कर रहा था, पैसे देते वक्त वो फोटो मुझे दिखाई दिया...