Sunday 24 December 2017

अगर ना बनती ये सड़क

अगर ना बनती ये सड़क तो
बारिसों में खरंजों से रिसते कांच से पानी में लात मार उसे मैला करते दिख जाते कुछ बच्चे
अगर ना बनती ये सड़क तो
बड़ के पेड़ से तोतों के बच्चे निकाल खेल रहे होते कुछ और दूसरे बच्चे
अगर ना बनती ये सड़क तो
मेड़ों से गुजरते हुए उनमें हुए छेद भी ठीक कर रहे होते कुछ बुज़ुर्ग
अगर ना बनती ये सड़क तो
ताल की पाल पे यूँ ही सूख नहीं जाते नीम के सैंकड़ों पौधे
अगर ना बनती ये सड़क तो
उस कुएं के घाटों पर बने रस्सियों के निशान थोड़े और गहरे हो गए होते
गहरे हो गए होते पूरब में बसे उन दलित बस्तियों से कुछ रिश्ते
अगर ना बनती ये सड़क तो....
बहुत कुछ था जो टूटने/ छूटने से बच जाता...

Tuesday 5 December 2017

मुबारक हो मेरे गांव वालो... आपने अपनी आज़ादी गिरवी रख दी, वो भी मुफ्त में

आप जहां पैदा होते हैं, जहां बड़े होते हैं। वहां घट रही हर एक छोटी-बड़ी बात प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से आपको प्रभावित करती है। भले ही आप उस समाज में नहीं रहते हों। मेरा जात-पात में कोई यकीन नहीं है लेकिन जो हो रहा है उसे बताने या लिखने का कोई दूसरा तरीका भी नहीं है। हालांकि मेरे कुछ भी लिख देने से कुछ नहीं बदलता और बदलेगा भी नहीं लेकिन मेरे गांव के ब्राह्मण समाज में जो कुछ दिख रहा है वो बहुत भयानक है। किसी समाज में एक-दूसरे के प्रति नफरत कैसे पनपायी जाती है, किसी की आज़ादी कैसे छीनी जाती है, सामंतवाद और तानाशाही की जड़ें कैसे मजबूत होती और हुई होंगी। ये सब समझने के लिए चले आइए धौलपुर जिले के बदसूरत बना दिए गए मेरे गांव सरमथुरा में। मेरा यकीन मानिए राजनीति में आई नफरत का केन्द्र बिन्दू तलाश रहे लोगों के लिए भी ये पीएचडी की सबसे बढ़िया जगह होगी।
दरअसल, हो यह रहा है कि इस समाज के दो ‘प्रभावशाली’ लोगों में झगड़ा हुआ। दोनों ने एक-दूसरे के यहां आना-जाना बंद कर दिया। अब दूसरे के यहां समाज का कोई भी आदमी अगर किसी प्रोग्राम में जा रहा है तो इधर समाज का ‘तारणहार’ बन कर बैठा पहला आदमी उसे पूरे समाज से बहिष्कृत कर दे रहा है। माफी मांगने या अगली बार नहीं जाने की बात पर ही उसे समाज में वापस लिया जा रहा है। उदाहरण के लिए समझिए कि अगर मेरे चाचा के लड़के की शादी है और वो उस दूसरे ग्रुप में हैं तो मैं वहां बहिष्कृत होने के डर से नहीं जा पाऊंगा। इसी तरह अगर दूसरे ग्रुप में मेरी बेटी का परिवार है तो मैं मेरी बेटी या दामाद या उसके परिवार के किसी सदस्य को अपने किसी कार्यक्रम में नहीं बुला पाऊंगा। अगर वो आए तो दूसरा ग्रुप उन्हें अपने यहां से बहिष्कृत कर देगा। मतलब दोनों तरफ अंधेरगर्दी है। अपनी निजी लड़ाई समाज के हजारों लोगों के कंधों पर बंदूक रख लड़ी जा रही है। गजब है।

 अब किसी के लिए या सरमथुरा के ब्राह्मण समाज के लोगों के लिए बहुत मामूली या सामान्य बात हो सकती है लेकिन अगर आप इसे थोड़ी गहराई से देखेंगे तो पाएंगे कि दो शातिर लोगों ने हजारों लोगों की आज़ादी अपनी जूती के नीचे कुचल दी। इससे भी दुख की बात है कि इन हजारों लोगों ने अपनी कहीं भी, किसी के भी आने-जाने और बुलाने की आज़ादी को दो लोगों के नाम गिरवी रख दिया वो भी खुशी-खुशी। आपको पता ही नहीं चला कि दो लोग आपकी फुटबाल बनाकर खेल रहे हैं या आपने अपनी मर्जी से ही अपना दिमाग, अपने विचार और अपनी समझने की शक्ति इनके नाम की है?

अट्‌टाहास करते होंगे आपकी मूर्खता पर जब रात में एक साथ मिलते होंगे कभी, कहीं। क्या आपने इन्हें ये अधिकार दिया है कि ये दो लोग तय करें कि आपको कब और किसके यहां जाना है? क्या ये लोग आपके वोट से जीतकर आए हैं? (जो आते हैं वो भी ऐसा नहीं कर सकते।) तानाशाही और एक-दूसरे के लिए नफरत पैदा होने का शुरूआती चरण यही होता है। क्या आप चाहते हैं कि वो वक्त वापस लौटे जब गांव का मुखिया सिर पर साफा बांधकर आपको हुक्म दे। 
यकीन मानिए आप के आस-पास बहुत बुरे लोग हैं जो किसी समाज के बनने के शुरूआती और जरूरी चीजों को ही आपसे अलग कर रहे हैं। क्या आप नहीं देख पा रहे कि आपके घर वही लोग नहीं आ पा रहे जिनका आपके आस-पास होना हमेशा बहुत जरूरी होता था? इतनी बड़ी टूटन को आप सहन कैसे कर पा रहे हैं? ये जो फैसले लिए जा रहे हैं क्या उसमें आपकी भी सहमति है? अगर नहीं तो क्या आपने उन दो लोगों को ही अपनी तकदीर लिखने का जिम्मा सौंप दिया है? या आप समझ ही नहीं पा रहे कि आपके साथ क्या गेम हो रहा है। इसे समझने का एक फॉर्मूला दे रहा हूं। अगली बार जब वे ‘प्रभावशाली’ लोग आपको कोई हुक्म दें तो उनकी आंखों में देखिएगा। शातिरी और मक्कारी नज़र आएगी। बाकी आप सब लोग समझदार हैं। बस आंख मूंदकर खुद को यूं ही समर्पित मत करिए किसी को। मैं इसे इसीलिए लिख रहा हूं क्योंकि मैं समझ पा रहा हूं कि किसी भी समाज का बिखरना, टूटना ऐसे ही शुरू होता है जैसा आजकल आपके समाज में हो रहा है।