Sunday 13 November 2016

पश्मीने सी रात, ऊपर चांद का पहरा और मसनदों पर टिके लोग



रात के 10 बजे हैं लेकिन आसमान में कोई तारा नहीं है। लग रहा है चांद अपने घर की कोई खिड़की तोड़ जवाहर कला केन्द्र के आंगन में छिड़ी राग वागेश्वरी की तानों को सुनने उतर आया है। ये तान छेड़ रखी हैं सारंगी वादक पद्मश्री उस्ताद मोइनुद्दीन खान ने। सामने कुर्सियों और मसनदों पर पीठ टिकाए लोग हैं जिनमें आधे से ज्यादा युवा हैं। मद्धम रोशनी में हर किसी की उंगलियां घुटनों पर जाकर थिरक रही हैं, पैर ठुमक रहे हैं। 
 
 यूथ और क्लासिकल सिंगिंग? हां पर सारी रात यही तो जगे रहे थे

मुस्कुराती सारंगी से निकली बड़े गुलाम अली की ‘सैंया बोलो मोसे तनिक रह्यो ना जाय’ ठुमरी पर युवाओं की वाह-वाह क्लासिकल सिंगिंग के बने-बनाए दायरों को तोड़ रही है जो सुखद है।

सुरों से सजी रात थोड़ी और बड़ी हुई, 12 बज गए हैं। मसनदों के सहारे जमे लोगों की तरह चांद भी ठहरा हुआ है ओपन थियेटर के ठीक ऊपर। मंच पर चांदनी जैसी महीन आवाज समेटे एक शख्सियत आती है कौशिकी चक्रवर्ती। जयपुर को नमस्कार, प्रणाम करती हैं और राग मालकोश में ‘कब आओगे साजन’ शुरू किया। गीत शुरू हुआ और सरगम नाचने लगीं। नजारा कुछ-कुछ ऐसा ही है जैसा हम आज किताबों में राजाओं की सभाओं की शास्त्रीय गायन की महफिलों को पढ़ते हैं। तबले की थाप और कौशिकी की सरगम जैसे ही एक साथ बंद होती, दर्शकों के हाथ ऊपर उठते हैं
वाह-वाह करते हुए। 
 
कौशिकी चक्रवर्ती, आप बॉलीवुड में मत ही गाना मेरा सुझाव है आपको 
अब चूंकि राजस्थान है तो मीरा जेहन में क्यों न आए? ‘सांवरा म्हारी प्रीत निभाजो... प्रीत निभाजो जी...’ भजन जैसे ही शुरू हुआ ओपन थिेयेटर की दीवार पर लटके पोस्टर पर छपी मीरा बाई मुस्कुराने लग गईं। 
 
रातभर ये मीरा मुस्कुराती रही, नाचती रही
 

रात का तीसरा पहर शुरू हो रहा है, पोस्टर की मीरा अभी भी मुस्कुरा रही हैं। इसी बीच पं. विश्वमोहन भट्‌ट अपनी मोहनवीणा और पं. रामकुमार मिश्र तबले के साथ मंच पर आए हैं। कई रागों की सरिता में बहाने के बाद पं. भट्‌ट ने ग्रैमी अवार्ड विनिंग अपनी एल्बम ‘ए मीटिंग बाय द रिवर’ सुनाया।
 
पं. विश्वमोहन भट्‌ट और पं. रामकुमार मिश्र कॉम्पटिशन लड़ाते हुए
 सर्दी रंग दिखा रही है लेकिन सुरों की ऊर्जा में लोग अभी तक डटे हुए हैं। तबले और मोहनवीणा की जुगलबंदी की बीच सुबह की साढ़े तीन बज चुके हैं। देश में ध्रुपद के दो बड़े नाम पद्मश्री उमाकांत और रमाकांत गुंदेचा बंधुओं ने ब्रह्म मुहूर्त यानी सुबह 5.30 बजे तक ध्रुपद गायन किया।
ध्रुपद ज्यादा समझ नहीं आता पर एक ही समय में नाभि और कंठ से सुर निकालना बड़ी टेड़ी खीर है


इसके बाद मंच पर आए हैं प्रख्यात शास्त्रीय गायक राजन और साजन। उन्होंने राग भटियार में ‘उचट गई मोरी नींदरिया हो बलमा...’ से शुरू किया। अब आसमान का अंधेरा छंटने लगा है, पंछियों के चहकने की आवाजें आने लगी हैं। चांद भी आसमान से गायब हो गया, शायद जमीं के किसी कोने में उतर ही आया है लेकिन दिखाई नहीं दे रहा। सूरज भी निकलने की तैयारी कर रहा है, इधर राजन-साजन इस प्रभात का स्वागत कर रहे हैं, ‘ आयो प्रभात, सब मिल गाओ, हरि को रिझाओ रे...’ किसी सुबह का ऐसा स्वागत कब और कहां देखने को मिलता है भला?
सुबह का स्वागत करते राजन-साजन मिश्र


Friday 14 October 2016

भैया आते रहना, पहली बार दिल की बात कहने का मौका मिला है

मैं अपने घर का पूरा काम करती हूं। झाडू-पोंछा, बर्तन और कपड़े भी धो कर आती हूं। मम्मी के साथ खाना भी बनवाती हूं। इसके बाद स्कूल आती हूं। फिर भी मम्मी बोलती हैं कि स्कूल में कौनसे किले टूटे जा रहे हैं जो जाना जरूरी ही है एक दिन मत जा क्या फर्क पड़ेगा? मैंने मम्मी को बोला, पढ़ाई है मुझे जाना है, मेरे इतना कहने से मम्मी नाराज हो गईं। एक दिन रात में मेरे भाई ने पानी मांगा तो मैंने कहा, उठ के पी ले। उसने मम्मी को शिकायत कर दी और मम्मी ने मुझे डांट दिया। एक बार मेरे भाई ने कहा कि मम्मी मुझे सिंगिंग सीखनी है तो उसे म्यूजिक क्लास भेज दिया और मैंने कहा कि मम्मी मुझे डांस सीखना है तो मम्मी बोली, डांस सीखके क्या मुजरा करना है’?

शालिनी क्लास रूम में डबडबाई आंखों से जैसे-जैसे ये सुना रही थी दिल बैठा जा रहा था। हमारे सुनने के लिए वही सब था जो हमारे समाज में आम है लेकिन जैसे ही मुजरा शब्द कानों में गया, शरीर में सिहरन सी दौड़ गई। कोई मां अपनी बेटी से ऐसा कह सकती है भला? वो बेटी कितनी हिम्मत वाली है जो वहां अपने साथ पढ़ने वाली 11 लड़कियों के सामने खुल कर बता रही है कि उसकी ही मां ने उसकी तुलना मुजरा करने वालियों से कर दी जिन्हें हमने कभी औरत समझा ही नहीं है। उसका यह सब बताना भी एक बड़ी लड़ाई है या यूं कहूं उसकी जीत है।

त्रिवेणी नगर के सरकारी स्कूल में गए तो 8वीं क्लास की लड़कियां मिलीं। बातें वही थीं जो और जगह सुनने को मिली। फोटो खींच लेने के बाद मैं उनके बीच जाकर बैठ गया या यूं कहिए मैं बैठ गया तो चारों तरफ से उन्होंने मुझे घेर लिया। ऐसी बातें जो वे सिर्फ अपनी मां या टीचर से करती हैं वो मुझसे भी करने लगीं। तभी हॉल में एक तीखी सी आवाज गूंजी। लड़कियों की उम्र 18 साल है शादी के लिए। मैंने कहा हां सही तो है इसमें दिक्कत क्या है? बोली, दिक्कत है, अब 18 की होते-होते शादी कर देते हैं लोग आगे बढ़ने ही नहीं देते। मैं आईएएस बनूंगी तो जरूर इसे 21 साल करने की लड़ाई लडूंगीं।

एक पत्रकार के तौर पर आप खबर करते-करते कितना कुछ सीखते हैं इसका पता हमें उस वक्त नहीं चल पाता। 4 दिन बाद यह लिख पा रहा हूं क्योंकि उनकी कई बातें मेरे अवचेतन में जमा हो गई हैं। शुरूआत कुछ ऐसे हुई कि 11 अक्टूबर को इंटरनेशनल गर्ल्स चाइल्ड डे था। साथी जयकिशन ने कहा, इस पर क्यों न कोई स्टोरी की जाए? ऑफिस में प्रतीत सर से बात की कि क्या हो सकता है। बात निकली कि आज भी समाज में लाखों लोग हैं जो कहते हैं लड़की है क्या कर लेगी? इस बात का जवाब हम लड़कियों से ही लेंगे कि वे क्या कर सकती हैं। तय हुआ कि हम किसी प्राइवेट स्कूल में नहीं जाएंगे, सिर्फ सरकारी स्कूलों की बच्चियों से बात करेंगे कि वे इस पर क्या सोचती हैं। ऐसा इसीलिए क्योंकि सरकारी स्कूलों में लोअर मिडिल क्लास और गरीब लोगों के बच्चे पढ़ते हैं। हालांकि मुझे उम्मीद थी कि वे कहेंगी तो वही सब जो समाज में आमतौर पर महिलाएं और लड़कियां कहती हैं लेकिन जब उनसे बात तो मैं उनका आत्मविश्वास देखकर हैरान था। 6वीं क्लास में पढ़ने वाली लड़कियां खुद और समाज में जो घट रहा है इतनी बारीकी से देखती-समझती होंगी मैंने सोचा ना था। जो आत्मविश्वास और नॉलेज उनका 7वीं या 8वीं क्लास में है वो मेरा तो 12वीं कक्षा में भी नहीं था। अक्सर इन सब बातों से मैं थोड़ा भावुक हो जाता हूं लेकिन इस बार खुश हुआ। ये वो लड़कियां नहीं हैं जिनके परिवार बहुत ज्यादा पढ़े-लिखे हैं। किसी के पिता टैक्सी चलाते हैं तो किसी के छोटी सी दुकान।

मुझे इन लड़कियों का नहीं पता कि वो क्या करेंगी या जो बनना चाहती हैं बन पाएंगी भी या नहीं लेकिन इतना जरूर है इनके बच्चे वो सब कर पाएंगे जो वो करना चाहेंगे। वो दिन आएगा लेकिन काश वो दिन आज ही होता तो....

भैया आप आए हैं तो बहुत अच्छा लग रहा है। अपने दिल की बातें कहने का मौका मिल रहा है। ऐसे तो हमारे भाई भी हमसे बात नहीं करते जैसे आप कर रहे हैं। इतना अच्छा लग रहा है कि बता नहीं सकते हम। ऐसे ही महीने-दो महीने में आते रहा करिए ताकि हम जो बातें समेट कर खुद के अंदर दफनाए रखते हैं आपको बता सकें। आते-आते उस लड़की की इस बात ने थोड़ा इमोशनल सा कर दिया।





Friday 16 September 2016

#मानसून_डायरी (5)

हर किसी की अपनी दुनिया है। अपनी-अपनी उम्मीदें हैं, सपने हैं और उन्हें पूरा करने की अपनी-अपनी कोशिशें हैं फिर भी जिससे पूछो वो नाखुश है, मरी हुई सांसें लिए चलते-फिरते बदन हैं। एक अदद चैन की नींद के लिए तरसे हुए लोग हैं हम। लेकिन जब जिसके लिए भाग रहे हैं वो ऐसी शक्ल में दिख जाए तो लगता है उस भाग-दौड़ की छतरी बना, सपनों का तकिया और उनके लिए की जाने वाली कोशिशों को नींद में भरकर जी भर के सो लिया जाए। पास से बह रही नदी मानो गा रही हो जिसमें आसपास चर रही गायों के गले में बंधीं घंटियों का संगीत हो। 

 

बांसुरी सी बजती कीट-पतंगों की आवाज़ें हों। जब तलक सोने का मन हो सोया जाए। ना कोई जगाने वाला हो और ना ही कोई सपनों को पूरा करने के लिए थका देने वाली भीड़। बस एक छाता हो जिसमें उस भाग-दौड़ को भरा जा सके और आपको समेटने के लिए हरे घास का आंचल...

Monday 5 September 2016

#मानसून_डायरी (4)

हमारी ज़िन्दगी के कई हिस्से ऐसे खाली मर्तबानों से होते हैं। पढ़ाई-लिखाई, रिश्ते-नातों की सजावट कर हमें भी इसी तरह बाज़ारों में रख दिया जाता है बिकने के लिए। खाली होते हुए भी हमें ये खूबसूरत लगते हैं लेकिन जैसे ही कोई खरीददार अपने घर की किचन में सजाता है तेल जमने लगता है। ख़ूबसूरती उतरने लगती है, चमक फ़ीकी पड़ने लगती है। खाली ज़िन्दगी भी इन जैसी खूबसूरत होती है लेकिन काम की नहीं होती। इन मर्तबानों की तरह हमारा कोई खरीददार नहीं होता सिर्फ अपने सिवाय। खुद ही खुद को बेचना पड़ता है, खुद ही खुद की चमक और खूबसूरती 

उतारनी पड़ती है। इसके बाद जो अनुभवों की खुशबू आती है वो ठीक इन चीनी-मिट्‌टी के बर्तनों में रखे अचार सी होती है। दोनों को सुकून रहता है अपनी खूबसूरती खोकर दूसरों के काम आने का। 


 

Sunday 4 September 2016

#मानसून_डायरी (3)

कुछ यादें हैं जो इस मीनार पर अटक गई हैं। यादें अटक-अटक कर लटक गई हैं पर मीनार वैसे ही खड़ी है जाने कितनों की यादों को लटकाए हुए। ऊपर से टकटकी लगाए देखते हुए बादल हैं तो नीचे उन यादों को बहाकर ले जाती नदी है। न जाने कहां-कहां से बहा कर ले आती है ये नदी इन यादों को। 


नदी के बीचों-बीच खड़ी इस मीनार में बहती हुई यादें वेग में कहीं अटकी रह जाती हैं। मेरी भी अटक गई हैं इसी में कहीं। उनकी भी जो यहां आते हैं अपनों की अंतिम यात्रा में। अटकी यादों की जिम्मेदारी के बोढ से इसकी चोटी थोड़ी झुक सी गई है। मैं इस मीनार को इस जिम्मेदारी से मुक्त कर देना चाहता हूं लेकिन फिर सोचता हूं, एक यही तो काबिल है हम प्रवासियों की यादों को ढोने के, खुशनसीब भी जो हमारे पैदायशी जगहों में होने वाले बदलावों को देख रही है चुपचाप खड़े हुए। इसीलिए मैं इसे यादों और बदलावों की मीनार कहता हूं।

Saturday 3 September 2016

#मानसून_डायरी (2)

1- मियां-बीवी दोनों गुलाब ही बेचते हैं। जो भी लड़का-लड़की खड़ी दिखे वो इनके लिए ग्राहक ही है। हर 10-15 मिनट बाद MacDonald की किसी सीढ़ी के बाहर बैठकर दोनों न जाने क्या बुदबुदा लेते हैं। थोड़ी देर बाद हाथों में महकती टोकरी और बजबजाती ज़िन्दगी लिए फिर चल देते हैं। एक-दो बार माल के मालिक की हैसियत से बेचते हैं फिर खुशबू लपेटे फटी हुई हथेलियों को फैलाकर खरीदने की जब गुहार लगाने लगते हैं। तभी आपके मुंह में घुल रही आइसक्रीम कई प्रश्नवाचक चिन्हों के साथ हलक में उतर जाती है। नज़रें मिलती हैं और फिर वो अगले ग्राहक की तलाश में निकल जाते हैं।

 

 2- एक टोकरी भर हर रंग के गुलाब रहते हैं उनके पास हर वक़्त। लाल, पीला, सफ़ेद और गुलाबी गुलाब। जो भी जवान सा दिखा उसी के पास दौड़ कर चले जाते हैं। मार्केटिंग की टारगेट ऑडियंस थ्योरी ज़िन्दगी से सीख ली है कि इन्होंने। बीवी के पास टोकरी रहती है और इसके पास एक गुलाब। जब ये एक भी नहीं बिकता तब वो लौट जाता है उसी MacDonald की सीढ़ीयों में बैठी अपनी बीवी के पास। अपने गुलाब को उसके हाथों में थमाता है और फिर वो उसे टोकरी में। लेकिन जिस वक़्त वो गुलाब उसके हाथों में थमा रहा होता है वही इसका रोज़ डे होता है। गरीब दिन में पचासों बार रोज डे मना रहा होता है।

Friday 2 September 2016

#मानसून_डायरी (1)

 #मानसून_डायरी एक कोशिश है उन चीजों को नए सिरे से देखने की जिन्हें मैं बचपन से देख रहा हूं लेकिन अब सलीके से इन्हें देखने की नज़र पैदा कर सका हूं। पता नहीं कब तक जारी रख सकूंगा और क्या इन चीजों के बारे में लिख पाऊंगा लेकिन कोशिश कर के देखता हूं अगर बची रह गई तो हमारे बच्चे देख पाएंगे और नहीं बची तो कम से कम ये जैसा-तैसा लिखा हुआ ही पढ़ लेगें।
ये मेरे गांव का दीवान का ताल है जो अब खत्म होने की कगार पर है
#पानी
1. बीती गर्मियों में ही आया था यहां। सूखे से तड़पते लोगों को देखा। पोखर का हरा गंदीला पानी पीते हुए लोग। आज फिर आया हूं। ज्यादा पानी से परेशां लोग। सप्लाई में आता गन्दा पानी पीते हुए लोग।
लोग हैं लोगों का क्या!!!

2. वो सूखे का बदसूरत गर्मी से भड़कता हुआ डांग। ऊबड़-खाबड़ उदास जंगलों वाला डांग।  आज फिर आया हूं। दिख रहा है हरियाली से चमकता हुआ डांग। हरियाली से उस उदासी को छांटता हुआ डांग।
डांग है इस डांग का क्या!!!
3. यही सूखा हुआ तालाब था तब भी। कुम्हार अपने गधों पर मिट्टी खोदकर ले जा रहे थे। गहरे-गहरे गड्ढे खोदकर चले गए वो कुम्हार।
आज उसी गहराई को इस बुर्ज़ से कूदकर नापते हुए लोग। दूर किनारे पर खड़ा दिख रहा था एक गधा।
गधे हैं गधों का क्या!!!

Monday 1 August 2016

राजा की भैंस, भैंस होती है प्रजा की सिर्फ जानवर!

उसके बाल लगभग सफेद हो चुके हैं। घनी-तीखी मूछें भी आधी पक चुकी हैं। बांए हाथ में वही पुराने जमाने की झक पीले फीते की घड़ी। आधी बांह के जेबदार बंडी (बनियान) इसलिए दिख गई क्योंकि उसने कुर्ता उतार कर अपने आगे की सीट पर लटकाया हुआ था। मैली सी धोती और पैरों में रबर के जूतों से समझ में आ गया था कि वो एक सामान्य सा किसान आदमी है।
नए बने हाइ-वे पर फर्राटे से दौड़ रही रोडवेज बस में मैंने अपनी सीट ले ली। बैठते ही वो बंडी वाला आदमी मुझसे बात करना चाह रहा था लेकिन शायद हमारे कपड़ों का अंतर ही था जो उसे अपनी बात कहने से रोक रहा था।
मैंने ही सामने से पूछ डाला, बाबा खां जागो? मेरे इस वाक्य ने मानो उसके किन्हीं ज़ख्मों को कुरेद डाला हो। उसका चेहरा देखकर लग रहा था कि उसे यह लगा मानो मैं ही वो दुनिया का इकलौता इंसान हूं जो उसकी समस्या को उसी की भाषा में समझ कर तुरंत हल कर देगा। मेरे यह पूछने पर कि बाबा खां जागो ने भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की निज भाषा उन्नति अहे, सब भाषा कौ मूल, बिन निज भाषा ज्ञान के मिटत न हिय के शूल को सही साबित कर दिया। उसे समझ आ गया किमैं लोकल ही हूं लेकिन नौकरी के लिए किसी शहर में रह रहा हूं। 

उसने अपनी पीड़ा का पिटारा खोल दिया जिसे वह अपनी किस्मत मान रहा था लेकिन मुझे समझ आ गया कि ये किस्मत नहीं सिस्टम का मारा हुआ था। आगे की सारी बात खड़ी ब्रज बोली में हुई लेकिन मैं उस बातचीत को हिंदी में लिख रहा हूं। 

मेरी भैंस चोरी हो गई हैं, महीनाभर हो गया लेकिन कहीं पता नहीं चल रहा। 4 भैंस थीं 3 लाख रुपए की। सब जगह ढूंढ़ लिया लेकिन नहीं मिली। रिश्तेदारों से कुछ सुराग मिला है कि मदनपुर के पास किसी गांव में गूजरों का काम है ये। पुलिस में रिपोट लिखाई पर कुछ नहीं हुआ। महीनेभर से भाग रहा हूं। 15-20 गांवों में जाकर आ चुका हूं। जो जहां बताता है वहीं जा रहा हूं। 3 लाख की भैंस थीं और ढूंढ़ने में में 40-50 हजार खर्च कर दिए हैं। 2 अभी ब्याई थीं, एक चौमासे में ब्याती और एक बाखरी (सालभर से दूध देती हुई) भैंस थी। ढूंढ़ते-ढूंढ़ते कर्जा हो गया और धन-धरम से गए सो अलग। 

3 साल से अकाल है, खाने के लाले पड़े हैं। दूध बेचकर पेट पाल रहे थे। थक हार कर देवता से पुछवाई तो उसने बताया कि डांग एरिया में हैं भैंस मेरी। चोर गूजर हैं और मैं जोगी हूं, मिल भी गई तो बिना पइसा के वापस नहीं देंगे। इतना कह कर उसने मुंह बस की खिड़की की ओर फेर लिया। धंसी हुई आंखों से गिरा आंसू उसकी उन तीखी सी मूंछों में कहीं अटक गया।  

तो फिर क्यों जा रहे हो? मैंने पूछा तो बोले, देख भायले (दोस्त)  पता तो है मुझे कि कहां गई हैं मेरी भैंस और जिसने चुराई हैं उसने भी अपने रिश्तेदारों के यहां भेज दी हैं पर मुझे सुराग लगा है कि बाखरी भैंस अभी भी उसके पास है। मांग के देखूंगा अगर दे देगा तो। कुछ पैसे ले लेगा और क्या। आखिर में वो मुझसे जयपुर में नौकरी लगवा देने की बात कह कर एकदम शांत हो गया।

लेकिन जिस वक्त वो अपनी भैंस चोरी की कहानी सुना रहे थे मेरे जेहन में तुरंत आजम खान की भैंसों का ख्याल आया। राजा की भैंस, भैंस होती है और प्रजा की जानवर! राजा के लिए पूरा सिस्टम लग जाता है तो प्रजा खुद ही अपना सिस्टम डवलप करती है। देवी-देवताओं से पूछती है, रिश्ते-नातेदारों से पता करती है और वो सब करती है जो राजा कभी नहीं करता। कहने को लोकतंत्र है लेकिन जिस जाति का जहां वर्चस्व है वो वहां उतनी ही सामंती भी है। वह जानता है कि उसकी भैंस कहां हैं लेकिन वापस भी मिलेंगी तो पैसे देकर। हमारा आम आदमी रोज ऐसे ही जीता है। रोता भी है तो मुंह दूसरी तरफ फेरकर। इन तकलीफों और संघर्षों पर कोई डिबेट खड़ी नहीं होगी क्योंकि हम सब को इन्हें देखने की आदत बंद करवा दी गई है। हालांकि आप और हम जानते सब हैं लेकिन राजनीति ने हमें अपनी नजरें दे दी हैं। हम वही देखते हैं जो राजनीति हमें दिखाना चाहती है। कभी गाय तो कभी बीफ, कभी हिंदू तो कभी मुसलमान। कभी दलित तो कभी सवर्ण। कभी राष्ट्रवाद तो कभी देशद्रोह। आप और हम हर वक्त इस्तेमाल किए जा रहें हैं और हम बिना सोचे-समझे रोजाना इस्तेमाल हो भी रहे हैं।

Friday 22 July 2016

एक टूटी-फूटी बाखरों वाला गांव

कई लोगों ने मुझसे पूछा है कि बाखर का मतलब क्या है और मेरे ब्लॉग का नाम मेरी बाखर क्यों है? हालांकि जब मैंने ये ब्लॉग शुरू किया तब भी मैंने लिखा था कि ब्लॉग का नाम ये क्यों है। आज थोड़ा सा फिर से लिख रहा हूं। इस गांव को देखकर ही ब्लॉग का नाम ये रखा था। कई महीनों बाद ये फोटो खींचा। इस फोटो को मैं ढूंढ़ भी रहा था और कल अचानक लैपटॉप के एक फोल्डर में यह मिल गया।

देखते-देखते विचार आया कि एक गांव में क्या हो कि लोग वहां आराम से रह सकें। हम अर्द्ध शहरी हो चुके लोगों के अवचेतन में गांव की तस्वीर क्या है? यही कि गांव में चारों तरफ हरियाली है। एक तरफ नदी बह रही है, दूसरी ओर खेत लहलहा रहे हैं। पगडंडियां हैं। सभी लोग एक-दूसरे की मदद से सौहार्दपूर्वक रहते हैं और वहां दूध-घी की कमी नहीं है। कुछ-कुछ ऐसी छवि जो 50-60 के दशक से फिल्मों ने बना दी है।

ये गांव आज भी कुछ ऐसा ही है जैसा आपके-हमारे अवचेतन गांवों को लेकर छवि है। किनारे से बह रही नदी है। लहलहा रहे खेत भी हैं। मवेशी भी। विकास को दिखाता नदी के ऊपर बना हुआ पुल है, सफेद दुपट्‌टा ओढे एकदम काली चमचमाती सड़क है। लेकिन नहीं हैं तो बस इस गांव में रहने के लिए लोग। बरसों पहले ही गांव खाली हो चुका है। पूरा गांव छोड़कर लोग दूसरे कस्बे में जा बसे हैं। एकाध सरकारी नौकरी में गए तो अधिकतर ने ऐसे ही काम-धंधों में जिंदगी गुजार दी।

अब ये गांव वीरान है, एकदम सुनसान। दिन में भी झींगुरों की आवाजें सुनाई देती हैं। फोटो में जो कुछ दिख रहा है यही वो बाखर हैं जो अब टूट चुकी हैं। कभी मिट्‌टी के तेल के चलने वाले लैंप से भी जगमग रहने वाले इस गांव में आज बिजली का छोटा सब-स्टेशन है फिर भी यहां अंधेरा है। पीने के पानी के लिए बड़ी टंकी है लेकिन इसका फायदा कई दूसरे गांव ले रहे हैं। पक्की सड़क है लेकिन गांव में कोई नहीं रुकता। ये कच्चे घर तो क्या 30 साल में ही पक्की हवेलियां भी टूट-फूट कर भूतहा सी बन गईं। कितने निष्ठुर से हो गए हैं वो लोग जिनका बचपन इन बाखरों में गुजरा था। कभी मुड़कर भी नहीं देखते इनकी तरफ। ये इंतजार में तकती रहती हैं और एक दिन थककर भरभरा कर गिर पड़ती हैं अपने अतीत को दबाते हुए। 


दिल दुखी तो होता है लेकिन गुजरे वक्त को सिर्फ याद करना चाहिए उसमें रहना नहीं चाहिए। ये बात गुलजार साहब ने कही थी इस बार जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में। हां यह सही है कि अब इन बाखरों में पहले जैसी चहल-पहल कभी नहीं हो पाएगी लेकिन जब इन्हें कोई मेरे जैसा इंसान देखता है तो इन्हें खुद में समा लेने की कोशिश करता है। मैंने भी वही किया है इसे अपने ब्लॉग का नाम देकर। 


Saturday 9 July 2016

एक प्रवासी के लिए बरसात

रात के तीसरे पहर से लगातार बारिश हो रही है। सन्नाटे की इस रात में मेंढ़कों की टर्र-टर्र के अलावा पहाड़ियों से गिरते झरनों की सुंदर सी आवाज आ रही है। जैसे ही आवाज कम होती है पहाड़ी के पीछे से तेज गड़गड़ाहट से बिजली चमकती है। बिजली के चमकते ही मोर गाने लगते हैं। एक कोने से शुरू हुई गाने की आवाज भोर होते-होते चारों कोनों से आने लगती है। चाकी पर घर की सास कुछ पीसते हुए गीत गा रही है। अब सुबह हो गई। सब कुछ धुला हुआ है। गाएं रंभाती हुई हर चौखट से रोटियां लेती जा रही हैं। गांव का हर कच्चा रास्ता पानी से लबालब है। चाय पीकर हल्के उजाले में ही औरत और मर्द खेतों की ओर निकल गए हैं। खेत में पहुंचते ही धानी बोने की तैयारी होने लगी है। महिलाएं अच्छी पैदावार होने के गीत गाती जा रही हैं और पहले से जुते हुए खेतों में धानी बोने में मदद कर रही हैं। सावन भी आने वाला है तो महीनेभर पहले ही बेटियां पीहर आ चुकी हैं।
खेत की मेड़ पर लगे आम के पेड़ में सावन की गीतों पर झूला भी झूम रहा है। दिनभर अपनी तरह की मेहनत कर शाम को सब घर लौट आए हैं। गाएं भी रंभाती हुई हर चौखट से रोटियां लेकर वापस जा रही हैं। मंदिर में घंटियां बजने लगी हैं। मंदिर के चबूतरे पर हुक्का लिए बुजुर्ग रसिया (लोक-गीत), पौराणिक कहानियों पर वाद-विवाद, फलाने की बारात, ढिकाने की बेटी के ब्याह की बात करने लगे हैं। किशोर उम्र के लड़के बार-बार अंदर चौके में जाकर हुक्के में तंबाकू भर लाते हैं और एकाध गुड़की खुद भी लगा लेते हैं। रात के 10 बज जाते हैं। सब सोने चले जाते हैं। अगले दिन फिर यही सब होता है।

बरसात में गांव स्वर्ग होते थे, अब नहीं होते। एक कोने से मोर गाते जरूर हैं लेकिन सुबह होते होते दूसरे कोनों से ट्रेक्टरों के गर्राने की आवाजें आने लगती हैं। अब न चाकी पर कोई गीत गाता है न महीनेभर पहले बेटियां पीहर आती हैं। आमों पर झूले भी कम डलते हैं। मंदिर के चौतरे पर 10 बजे तक बैठने वाले गुजर गए। न कोई रसिया गाता है और न ही कोई अब हुक्का पीता है। बारातों की तैयारी तो अब सिर्फ घर के लोग ही करते हैं। कच्चेे घर की पाटौर के नीचे वो दिन अब नहीं आएंगे ये कहते हुए बंगलौर से आए रमझू मामा ने मोजे उतारे और शीशम की लकड़ी से बनी खाट पर सो गया।

#एक_प्रवासी_की_बरसात

Monday 20 June 2016

12 साल का बच्चा आत्महत्या क्यों करना चाहता है?

गोलमटोल से चेहरे का वो बच्चा बेहद मासूम और खुरापाती है। गोलाई में कटे हुए बाल, नाक के ठीक नीचे छोटा सा तिल और हर बात पर मटकती उसकी आंखें दिखा रही थीं कि भले ही वह 12 साल का है लेकिन हरकतें 7 साल के बच्चे सी हैं। कुछ समझ में आए या ना आए हर बात में बोलने से लग रहा था कि ये वाचाल बच्चा बाकियों से कुछ तो अलग है। फोन में गाना बजा और वो ठुमकने लगा। तभी दरवाजा खुला, कैफरी पहने एक लड़के ने आंखे दिखाते हुए बिना कुछ देखे-सोचे बच्चे के सिर में जोर से थप्पड़ मारते हुए कहा, सारे दिन चिल्लाता क्यों रहता है, पढ़ाई-लिखाई का कोई काम नहीं है क्या? वो उसका बड़ा भाई था। बच्चा मुंह लटकाए डबडबाई आंखें लिए चुपचाप टेबल पर ही बैठ गया। लड़का शर्ट पहनकर कहीं चला गया। अब कमरे में हम दोनों ही रह गए थे। उसके जाते ही वह फिर से उसी तरह ठुमकने लगा। 

मैंने पूछा, डांस करना पसंद है क्या? नहीं। तो क्या पसंद है? उसने कहा, पढ़ना। पढ़ाई तो सब करते ही हैं, पढ़ने के अलावा क्या करना अच्छा लगता है? उसने थोड़ी झिझक खोली और बोला, क्रिकेट। तो खेलता क्यों नहीं? हाथों से ही क्रिकेट खेलते हुए उसने जो जवाब दिया उस जवाब का कोई मनोवैज्ञानिक विश्लेषण तो होना ही चाहिए। 

वह बोला, पापा के सपने को पूरा करने के बाद अपने सपने पूरा करूंगा। पापा का सपना क्या है? मैंने पूछा। वो मुझे आईएएस बनाना चाहते हैं, उसने कहा। मैंने फिर पूछा, आईएएस बनने में तो काफी उम्र निकल जाएगी तेरी, फिर क्रिकेट कब खेलेगा? तभी जब आईएएस बन जाऊंगा, भले ही 35 साल का हो जाऊं। बनने के बाद ही खुद की पसंद के काम करूंगा। अगर आईएएस न बन सका और उम्र भी निकल गई तो क्रिकेट में भी करियर बनाने से रह जाएगा तू, तब क्या करेगा?

इस बात के उसके जवाब ने मेरे रोंगटे खड़े कर दिए। मेरी डरी हुई आंखें उसकी मटकती हुई आंखों में देख रही थीं कि उसे अपने इस जवाब पर इस कदर विश्वास था और अगर ऐसा हुआ तो वो ऐसा कर भी लेगा। उसने अपने घुटने को तबला बनाकर उसपर उंगलियों को खिरकाते हुए बहुत ही आत्मविश्वास के साथ जवाब दिया, तब मैं सुसाइड कर लूंगा। मरने के अलावा मेरे पास कोई और ऑप्शन भी नहीं होगा तब। अगर आईएएस नहीं बना तो पापा को क्या जवाब दूंगा और बन गया तो मुझे लगेगा कि मैंने अपने पापा के लिए कुछ किया है। 

जवाब सुनकर मैं स्तब्ध था। इतना ही याद आया और उसे सुना दिया कि ‘आत्महत्या एक टेम्पररी प्रॉब्लम का परमानेंट सॉल्यूशन है’। उसने हां में सिर हिलाया पर ऐसा बिलकुल नहीं कहा कि मैं ऐसा नहीं करूंगा। मैं यही सोच रहा था 12 साल के बच्चे में आत्महत्या करने की बात कैसे घर कर गई? ये सपना उसपर 6 साल की उम्र से ही थोप दिया गया था और इसे साकार करने के लिए कोटा भी भेज दिया गया। 

अब छुट्‌टियां चल रही हैं वो स्कूल भी नहीं जा रहा लेकिन वह जयपुर में अपने उस भाई के साथ रह रहा है, बिना किसी काम के, एक ऐसे मकसद को लिए जो पता नहीं शायद सच भी न हो। मैं चाहता हूं सच हो जाए। उसे उसकी बना दी गई मानसिकता से िनकालने की मेरी कोशिश नाकाम रही कि अभी वो िसर्फ 12 साल का है। स्कूल में पढ़ रहा है। कुछ बनने का ख्वाब 10-12वीं क्लास के साथ या बाद आते हैं पर वो शायद यह बात मानने को तैयार नहीं। 6 साल की उम्र से वो आईएएस बनने का सपना ढो रहा है और शायद ढोता रहेगा। मां-बाप ने उसकी शैतानियों से परेशान होकर यहां भेज दिया लेकिन उससे बात करके मुझे लगा कि वो यहां घुट रहा है अंदर ही अंदर मर रहा है। कुछ सपने जो इसके नहीं हैं उनके लिए परेशान हो रहा है। जिम्मेदार कौन है इसके लिए????

Friday 10 June 2016

अग्रवालो क्या इस फैसले में आपकी भी सहमति है?


कल यह खबर पढ़कर हैरान रह गया। एक बारगी विश्वास ही नहीं हुआ कि खुद को पढ़ा-लिखा और सबसे आगे बताने वाले इस समाज के कुछ लोग मानसिक रूप से इतना पिछड़े भी हो सकते हैं। खुद को ज्यादा कनेक्ट इसीलिए कर पा रहा था क्योंकि यह खबर मेरे गृह जिले धौलपुर से है।

हालांकि इसमें पूरे समाज की मर्जी शामिल नहीं है लेकिन उन लोगों के मुताबिक फैसला जिलेभर से पूरे समाज के लोगों ने लिया है। हुआ यह है कि अब धौलपुर जिले में अग्रवाल समाज की महिलाएं बारातों में होने वाली निकासी में नहीं नाचेंगी। ये फरमान समाज के लोगों ने मीटिंग कर लिया है। 


समाज की बनी हुई समिति ने पूरे जिले से पदाधिकारी बुलाए, करीब 60 लोग आए इनमें सिर्फ 4 महिलाएं थीं और एकमत से पारित कर दिया कि निकासी में अग्रवाल समाज की महिलाएं डांस नहीं करेंगी। ताज्जुब है कि महज 60 लोगों ने एक जगह बैठकर पूरे जिले की महिलाओं के बारे में खाप पंचायतों जैसा फैसला ले लिया। मेरी याद में तो खाप ने भी कभी महिलाओं के नाचने पर पाबंदी नहीं लगाई। आप लिखते हैं कि बैठक में समाज सुधार, कुरीति-कुप्रथा मिटाने जैसे कई निर्णय लिए गए। लेकिन इस फैसले से आपने कौनसा समाज सुधार या कुरीति मिटाई? बल्कि एक बुराई की शुरुआत ही की है। 



हो सकता है कि आपमें से बहुत लोग यह कह कर मुझे गरिया दें कि ये किसी समाज का अपना मसला है लेकिन बुरी शुरुआतें कहीं से भी शुरू हो सकती हैं और धीरे-धीरे वो समाज के उस तबके को अपनी जद में ले लेती हैं जो चाहकर भी इन बुराइयों से फिर दूर नहीं हो पाता। दहेज इसका जीता-जागता सबूत है। पैसे वालों ने इसे शुरू किया और आज गरीब अादमी अमीरों के शुरू किए इस फैशन का शिकार है। वो लड़की की शादी के लिए घर से लेकर खेत तक को कर्ज में डूबो देता है।

अपने फैसले में आपने कहा, निकासी के वक्त असमाजिक तत्वों से समाज की महिलाओं को खतरा रहता है। ठीक है लेकिन इसमें महिलाओं की क्या गलती है, ये दिक्कत तो उन लोगों की है ना जो गलत हरकतें करने की मानसिकता वाले हैं।
-       लिखा गया है कि इस फैसले का कड़ाई से पालन किया जाएगा और निगरानी भी रखी जाएगी। अगर फैसले को कोई नहीं मानता तो क्या आप उस पर कोई जुर्माना लगाएंगे या उसे समाज से बाहर कर देंगे?
-       आप ऐसे तुगलकी फरमान देकर क्या महिलाओं के लिए एक सीमा तैयार नहीं कर रहे, महिलाएं वही करें जो आप कहें। क्या धौलपुर जिले की महिलाओं ने खुद के सारे फैसले आप पर छोड़ दिए हैं या वो कहां नाचें और कहां नहीं ये तय करने के लिए उन्होंने आपको चुना है? 

अंत में एक बात आप महिलाओं से कहना जरूर चाहंूगा, क्या ये फैसला आप ऐसे इंसानों पर छोड़ना पसंद करेंगी जिन्हें आप जानती भी नहीं और वो आपसे कहंे कि आप यहां नाचिए और यहां नहीं। क्या आप चाहेंगी कि आज जिन लोगों ने आपको डांस करने से मना कर दिया वही लोग कल आकर यह भी कह दें कि शादी में आपको ऐसे कपड़े पहनने हैं, ऐसे नहीं? (ऐसा हो भी सकता है समाज सुधार के नाम पर)। क्या आप इन लोगों से यह पूछना नहीं चाहेंगी कि उन मर्दों का क्या जो आपके ही आगे इन्हीं बारातों में शराब पीकर आपस में अश्लील डांस करते हैं? या आप इसे महज अपने समाज का अंदरूनी मामला मानकर चुपचाप रहेंगी?