Saturday 26 May 2018

साईं का चेहरा...

आधे काले, आधे सफेद लंबे बालों में हाथ फेरता वो उतरा। एक साइड अपना साईकल रिक्शा लगाया। थकान उसकी लग्जिश में थी, हाथ धोये और फिर से अपने गीले हाथ सिर में फिर लिए। ढावे के बाहर यानी सड़क पर पड़ी कुर्सी पर बैठा। अंदर नहीं गया क्योंकि अंदर एसी लगा था। उसने वेटर को अध मरे इशारे से बुलाया। वो आया एक छोटी कटोरी में प्याज लेकर। उसने आर्डर दिया। सबसे जल्दी आर्डर पूरा हुआ। प्लेट में सिर्फ एक तंदूर रोटी थी और एक छाछ का गिलास। पानी मुफ्त में मिला था। पहले बीच का नरम हिस्सा खाया और फिर रोटी की बगलें उसने निगल ली कुछ छाछ से तो कुछ पानी से। प्याज बची रह गई, किसी प्याज मंडी की तरह!
वो उठा और एक थैली से कुछ सिक्के निकले। काउंटर पर बैठे शख्स ने पूछा, क्या-क्या है? उसने एक उंगली उठाकर इशारा किया। साईं के मंदिर भले अमीर हों लेकिन ज़िंदा आदमी गरीबी में साईं जैसा लगता है।  उसने अपनी पेंट ऊपर खिसकाई और रिक्शा थाम आगे बढ़ गया। ठीक वैसे ही जैसे किक मारकर वो लड़का बढ़ा...

Sunday 6 May 2018

खिड़की के उस पार...

हम सब ने अपनी चौहद्दियां बना ली हैं। आंगन में हमारे अब मोर नहीं आते और न हम मोरों को देखने अपनी चौखट के उस पार जाते हैं। क्या है उस पार जिसे देखने की हूक  हमारे मन में नहीं उठती? क्यों हम सब इतने एकाकी हो गए हैं, क्यों हम अपने एकाकीपन वाले रवैये से अपने बच्चों को भी एकाकी बना रहे हैं? क्या करेगा कोई बच्चा जब उसे आप अकेला छोड़ देंगे और वह एक खिड़की के कोने में बैठ बाहर की दुनिया के लिए अपना नजरिया बना रहा होगा। क्या सच में खिड़की से दिख रहे पहाड़ के उस पार ऐसा कुछ होता है? क्या सच में खिड़की के नीचे हर रोज कोई दही वाला आता है, क्या सच में खिड़की की सामने वाली गली में कोई गले में घंटी बांधे आता है जो कहता है कि समय निकला जा रहा है और बच्चा बोले, समय रुका हुआ है तो निकल कर कहां जा रहा है? इतनी मासूमियत क्या हममें अभी भी बची हुई है? क्या हो जब हम सब एक कमरे में बंद हो जाएं और खुली हो सिर्फ एक खिड़की? उस खिड़की के सामने से गुजरने वाला हर किरदार तुमसे पूछने लगे, यहां क्यूं बैठे हो बच्चे?

ये दुनिया अब हम सबके लिए वो खिड़की हो गई है और इस खिड़की के सामने से गुजरने वाला हर किरदार हमारे लिए बेहद सामान्य। पहाड़ के उस तरफ बहती नदी की आवाजें हमारी स्मृति में नहीं है, क्यों कि पहाड़ को चीर कर हमने उसकी रोड़ी से घर चुन लिए हैं। क्या आपको अपने घर की दीवारों से पहाड़ के चीखने की आवाज़ें नहीं आती? उसके पार  बहने वाली नदी हमारी आंखों की तरह सूखी नहीं दिखती? क्या हम सुर्ख नहीं हो गए हैं नदी के पाटों की तरह। क्यों नहीं हम कुछ दिन छुट्‌टी लेकर खिड़की फांद जाते। क्यों नहीं लखानी की स्लीपर पहने उस पहाड़ की तरफ नहीं चल पड़ते जिसे चढ़ना अब पहले से काफी आसान हो गया है? क्यों और कब तक हम एक खिड़की में ही बैठे-बैठे बीमार होते रहेगें इस इंतजार में कि किसी दिन राजा का राजवैद्य आएगा और हमारे घर के सारे पर्दे हटवा कर रात में खिली चांदनी और तारों की रोशनी दिखलाएगा, लेकिन क्या तब तक हम किसी गहरी नींद में नहीं सो चुके होगें बिलकुल टैगोर के डाकघर के उस बच्चे अमल की तरह....