बहुत दूर से खुद को यहां तक खींच लाया हूं बहुत आगे के सफ़र तक जाने के लिए। जहां से निकले हैं और जहां तक अभी पहुंचे हैं वो एक असंभव सी यात्रा है। बीच-बीच में कई अच्छे पड़ाव मिले हैं जिनमें IIMC एक है बाकी जिंदगी के तजुर्बे बहुत कुछ सिखा ही रहे हैं। मेरी बाख़र एक कोशिश है उन पलों को समेटने की जो काफी कुछ हमें दे जाते हैं लेकिन हमारी जी जा चुकी जिंदगी में कभी शामिल नहीं हो पाते। बाकी सीखने, पढ़ने-लिखने का काम जारी है और चाहता हूं कि ये कभी खत्म न होने वाला सफ़र भी सभी से मोहब्बत के साथ चलता रहे।
Friday 16 September 2016
Monday 5 September 2016
#मानसून_डायरी (4)
हमारी ज़िन्दगी के कई हिस्से ऐसे खाली मर्तबानों से होते हैं। पढ़ाई-लिखाई, रिश्ते-नातों की सजावट कर हमें भी इसी तरह बाज़ारों में रख दिया जाता है बिकने के लिए। खाली होते हुए भी हमें ये खूबसूरत लगते हैं लेकिन जैसे ही कोई खरीददार अपने घर की किचन में सजाता है तेल जमने लगता है। ख़ूबसूरती उतरने लगती है, चमक फ़ीकी पड़ने लगती है। खाली ज़िन्दगी भी इन जैसी खूबसूरत होती है लेकिन काम की नहीं होती। इन मर्तबानों की तरह हमारा कोई खरीददार नहीं होता सिर्फ अपने सिवाय। खुद ही खुद को बेचना पड़ता है, खुद ही खुद की चमक और खूबसूरती
उतारनी पड़ती है। इसके बाद जो अनुभवों की खुशबू आती है वो ठीक इन चीनी-मिट्टी के बर्तनों में रखे अचार सी होती है। दोनों को सुकून रहता है अपनी खूबसूरती खोकर दूसरों के काम आने का।
Sunday 4 September 2016
#मानसून_डायरी (3)
कुछ यादें हैं जो इस मीनार पर अटक गई हैं। यादें अटक-अटक कर लटक गई हैं पर मीनार वैसे ही खड़ी है जाने कितनों की यादों को लटकाए हुए। ऊपर से टकटकी लगाए देखते हुए बादल हैं तो नीचे उन यादों को बहाकर ले जाती नदी है। न जाने कहां-कहां से बहा कर ले आती है ये नदी इन यादों को।
नदी के बीचों-बीच खड़ी इस मीनार में बहती हुई यादें वेग में कहीं अटकी रह जाती हैं। मेरी भी अटक गई हैं इसी में कहीं। उनकी भी जो यहां आते हैं अपनों की अंतिम यात्रा में। अटकी यादों की जिम्मेदारी के बोढ से इसकी चोटी थोड़ी झुक सी गई है। मैं इस मीनार को इस जिम्मेदारी से मुक्त कर देना चाहता हूं लेकिन फिर सोचता हूं, एक यही तो काबिल है हम प्रवासियों की यादों को ढोने के, खुशनसीब भी जो हमारे पैदायशी जगहों में होने वाले बदलावों को देख रही है चुपचाप खड़े हुए। इसीलिए मैं इसे यादों और बदलावों की मीनार कहता हूं।
नदी के बीचों-बीच खड़ी इस मीनार में बहती हुई यादें वेग में कहीं अटकी रह जाती हैं। मेरी भी अटक गई हैं इसी में कहीं। उनकी भी जो यहां आते हैं अपनों की अंतिम यात्रा में। अटकी यादों की जिम्मेदारी के बोढ से इसकी चोटी थोड़ी झुक सी गई है। मैं इस मीनार को इस जिम्मेदारी से मुक्त कर देना चाहता हूं लेकिन फिर सोचता हूं, एक यही तो काबिल है हम प्रवासियों की यादों को ढोने के, खुशनसीब भी जो हमारे पैदायशी जगहों में होने वाले बदलावों को देख रही है चुपचाप खड़े हुए। इसीलिए मैं इसे यादों और बदलावों की मीनार कहता हूं।
Saturday 3 September 2016
#मानसून_डायरी (2)
1- मियां-बीवी दोनों गुलाब ही बेचते हैं। जो भी लड़का-लड़की खड़ी दिखे वो इनके लिए ग्राहक ही है। हर 10-15 मिनट बाद MacDonald की किसी सीढ़ी के बाहर बैठकर दोनों न जाने क्या बुदबुदा लेते हैं। थोड़ी देर बाद हाथों में महकती टोकरी और बजबजाती ज़िन्दगी लिए फिर चल देते हैं। एक-दो बार माल के मालिक की हैसियत से बेचते हैं फिर खुशबू लपेटे फटी हुई हथेलियों को फैलाकर खरीदने की जब गुहार लगाने लगते हैं। तभी आपके मुंह में घुल रही आइसक्रीम कई प्रश्नवाचक चिन्हों के साथ हलक में उतर जाती है। नज़रें मिलती हैं और फिर वो अगले ग्राहक की तलाश में निकल जाते हैं।
2- एक टोकरी भर हर रंग के गुलाब रहते हैं उनके पास हर वक़्त। लाल, पीला, सफ़ेद और गुलाबी गुलाब। जो भी जवान सा दिखा उसी के पास दौड़ कर चले जाते हैं। मार्केटिंग की टारगेट ऑडियंस थ्योरी ज़िन्दगी से सीख ली है कि इन्होंने। बीवी के पास टोकरी रहती है और इसके पास एक गुलाब। जब ये एक भी नहीं बिकता तब वो लौट जाता है उसी MacDonald की सीढ़ीयों में बैठी अपनी बीवी के पास। अपने गुलाब को उसके हाथों में थमाता है और फिर वो उसे टोकरी में। लेकिन जिस वक़्त वो गुलाब उसके हाथों में थमा रहा होता है वही इसका रोज़ डे होता है। गरीब दिन में पचासों बार रोज डे मना रहा होता है।
Friday 2 September 2016
#मानसून_डायरी (1)
#मानसून_डायरी एक कोशिश है उन चीजों को नए सिरे से देखने की जिन्हें मैं बचपन से देख रहा हूं लेकिन अब सलीके से इन्हें देखने की नज़र पैदा कर सका हूं। पता नहीं कब तक जारी रख सकूंगा और क्या इन चीजों के बारे में लिख पाऊंगा लेकिन कोशिश कर के देखता हूं अगर बची रह गई तो हमारे बच्चे देख पाएंगे और नहीं बची तो कम से कम ये जैसा-तैसा लिखा हुआ ही पढ़ लेगें।
ये मेरे गांव का दीवान का ताल है जो अब खत्म होने की कगार पर है |
#पानी
1. बीती गर्मियों में ही आया था यहां। सूखे से तड़पते
लोगों को देखा। पोखर का हरा गंदीला पानी पीते हुए लोग। आज फिर आया हूं।
ज्यादा पानी से परेशां लोग। सप्लाई में आता गन्दा पानी पीते हुए लोग।
लोग हैं लोगों का क्या!!!
लोग हैं लोगों का क्या!!!
2. वो सूखे का बदसूरत गर्मी से भड़कता हुआ डांग। ऊबड़-खाबड़ उदास जंगलों वाला डांग। आज फिर आया हूं। दिख रहा है हरियाली से चमकता हुआ डांग। हरियाली से उस उदासी को छांटता हुआ डांग।
डांग है इस डांग का क्या!!!
3. यही सूखा हुआ तालाब था तब भी। कुम्हार अपने गधों पर मिट्टी खोदकर ले जा रहे थे। गहरे-गहरे गड्ढे खोदकर चले गए वो कुम्हार।
आज उसी गहराई को इस बुर्ज़ से कूदकर नापते हुए लोग। दूर किनारे पर खड़ा दिख रहा था एक गधा।
गधे हैं गधों का क्या!!!
डांग है इस डांग का क्या!!!
3. यही सूखा हुआ तालाब था तब भी। कुम्हार अपने गधों पर मिट्टी खोदकर ले जा रहे थे। गहरे-गहरे गड्ढे खोदकर चले गए वो कुम्हार।
आज उसी गहराई को इस बुर्ज़ से कूदकर नापते हुए लोग। दूर किनारे पर खड़ा दिख रहा था एक गधा।
गधे हैं गधों का क्या!!!
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