Saturday 29 August 2015

अंधेरे का भी अपना उजाला होता है...

अंधेरे का भी अपना उजाला होता है जिसे मैं देख पा रहा हूं। एक पठार और उसकी तलहटी पर बसे इस कस्बेनुमा गांव की किसी ऊंची जमीन पे बने घर से इस अंधेरे को देख रहा हूं। कई किलोमीटर दूर तक जुगनुओं की तरह टिमटिमाते बल्ब और उन तक पहुंचने वाली सड़कों तक फैला उजाले को समेटे हुआ अंधेरा। बारिश के इंतज़ार में चीखते झींगुर और दूर किसी खेत से मोर के बोलने की आवाज बहुत कुछ कह रही है। नज़रों के ठीक सामने समन्दर की तरह फैला हुआ जंगल सा दिख रहा है जहां दिन में बहुत से गांव दिखते हैं। इनसे नज़र हटाकर आसमां पर टिकाओ तो नज़ारा कुछ अलग नहीं है। नीचे की तरह ऊपर भी नीले आसमान का जंगल और किसी लालटेन सा जलता ये चांद, जो उजाला तो कर रहा है मगर उस अंधेरे को चीर नहीं पा रहा। ये कुछ दिखा पा रहा है तो बस कुछ अधबने से घर जहां कभी ऐसा ही जंगल रहा होगा।

सोच रहा हूं इस पठार की चोटी पर बने किले से ये सब कैसा दिखता होगा? जब बल्ब नहीं होंगे तब किलोमीटरों दूर क्या चमकता होगा,क्या सच में जुगनूं ही चमकते होंगे? तब मोरों की आवाज़ क्या इसी तरह खेतों से आती होगी, क्योंकि बुज़ुर्ग तो कहते हैं कि तब मोर आंगन में ही घूमा करते थे। फिर ये सोचकर फालतू सोचना बंद कर दे रहा हूं कि शायद यही परिवर्तन है, यही विकास है।

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