हम सब प्यादे हैं न
जाने कौन कहां और कैसे हमें इस्तेमाल कर रहा है। न जाने हमारा वजीर कौन बन के बैठा
हुआ है जो हमारे सामने है पर दिख नहीं रहा असल जिंदगी में भी। यहां किसी दानिश को ओमकारनाथ
तो राजनीति को यज़ाद कुरैशी जैसे लोग इस्तेमाल ही तो कर रहे हैं जो बाहर दिख रहा है
वो सिर्फ चमक है। राजनीति का असली चेहरा उस पर जूता फेंकने के बाद ही दिखता है। वज़ीर
दरअसल हम सब की सी कहानी है। तमाशा के बाद रणबीर कपूर का फैन हो गया हूं तो वज़ीर के
बाद फरहान का, खासकर अब उनकी मिट्टी मिली आवाज का। बच्चन साब की एक्टिंग को तौलना
अब गुनाह है क्योंकि इस वक्त वह अभिनय के मोक्षकाल में हैं। वज़ीर एक फिल्म है जो इंटरवेल
में भी आपको जाने को नहीं कहती। ये फिल्म कभी खुद के अंदर झांकने को कहती है तो कभी
राजनीति और कश्मीर को कैमरे की नज़र से देखने के लिए बाध्य करती है। ये भी कहती दिखती
है कि अपने बगल में बैठे फिल्म देख रहे इंसान को भी अच्छे से देख लो कहीं यही तो वज़ीर
नहीं। ये फिल्म जिंदगी इसलिए है कि कश्मीर को हमारी जिंदगी की कहानियों के साथ बिजॉय
ने बड़े इंसाफ के साथ गुंथा है। पता नहीं पर जो दिल में आया है वही लिख बैठा हूं। अच्छी
फिल्मों की प्यास को बॉलीवुड अब शायद समझने लगा है। तभी कहानी और उसे दिखाने के तरीकों
को बदल रहा है। आप भी देख आइए अच्छी और सच्ची फिल्म है वज़ीर।
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