Thursday 26 January 2017

कविता: बदरी का धमकना

डरो मत मुझसे
एक अरसे से चुप बैठी हूं कुछ कहने की आस में
लेकिन क्या?
जो कहूंगी क्या सुन लेगा ये जमाना इसी ख़ामोशी के साथ
शायद नहीं!
कुलबुलाहट हुई, अंदर कुछ टूटने लगा, बेचैनी सी मची
कोई नहीं आया तुम्हारी तरह कहने को कि जो कहना है कह दो, मैं कान कर दूंगी धीरे से तुम्हारी ओर
इसीलिए कहने की जल्दबाजी है मेरी आवाज में ये तीखापन, मेरे कहने का अंदाज़ है जिसे गूंज कह रही हो तुम, अरसे से लिए बैठी चुप्पी का विरोध है मेरी ये धमक
लेकिन तुम डरो नहीं
मेरे कहने का प्राकृतिक तरीका है ये जो सुबह से बारिश के साथ आ रहा है

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