डरो मत मुझसे
एक अरसे से चुप बैठी हूं कुछ कहने की आस में
लेकिन क्या?
जो कहूंगी क्या सुन लेगा ये जमाना इसी ख़ामोशी के साथ
शायद नहीं!
कुलबुलाहट हुई, अंदर कुछ टूटने लगा, बेचैनी सी मची
कोई नहीं आया तुम्हारी तरह कहने को कि जो कहना है कह दो, मैं कान कर दूंगी धीरे से तुम्हारी ओर
इसीलिए कहने की जल्दबाजी है मेरी आवाज में ये तीखापन, मेरे कहने का अंदाज़ है जिसे गूंज कह रही हो तुम, अरसे से लिए बैठी चुप्पी का विरोध है मेरी ये धमक
लेकिन तुम डरो नहीं
मेरे कहने का प्राकृतिक तरीका है ये जो सुबह से बारिश के साथ आ रहा है
बहुत दूर से खुद को यहां तक खींच लाया हूं बहुत आगे के सफ़र तक जाने के लिए। जहां से निकले हैं और जहां तक अभी पहुंचे हैं वो एक असंभव सी यात्रा है। बीच-बीच में कई अच्छे पड़ाव मिले हैं जिनमें IIMC एक है बाकी जिंदगी के तजुर्बे बहुत कुछ सिखा ही रहे हैं। मेरी बाख़र एक कोशिश है उन पलों को समेटने की जो काफी कुछ हमें दे जाते हैं लेकिन हमारी जी जा चुकी जिंदगी में कभी शामिल नहीं हो पाते। बाकी सीखने, पढ़ने-लिखने का काम जारी है और चाहता हूं कि ये कभी खत्म न होने वाला सफ़र भी सभी से मोहब्बत के साथ चलता रहे।
Thursday 26 January 2017
कविता: बदरी का धमकना
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