ज़रा सोचिए एक फोटो क्लिक करने के लिए क्या-क्या चाहिए? जाहिर है कैमरा,
जगह, फोटोग्राफी सेंस, सब्जेक्ट-ऑब्जेक्ट जैसी तमाम टेक्नीकल बातें और हां फोटो को
खोजने-पहचानने वाली आंखें तो जरूर होनी ही चाहिए। लेकिन तब क्या जब फोटो खींचने वाले
हम दुनियावी लोगों के लिए अंधे हों? पढ़ाई के अलावा अपने हुनर को भी निखार रहे कोलकाता
के ऐसे कुछ दृष्टिबाधित स्टूडेंट्स से आज मिला। इनके क्लिक किए फोटो देखकर यकीन ही
नहीं हुआ कि जिन आंखों से हम लोग इतनी गंदगी देख रहे हैं ये स्टूडेंट्स बिना आंखों
के ही दुनिया की वो खूबसूरती देख रहे हैं जिसे हम बहुत कम कैद कर पाते हैं।
सिर्फ 10 दिन की कैमरा से संबंधित ट्रेनिंग के बाद इन्हें कैमरा हाथ में
दे दिए गए और फिर इन्होंने कैमरे की आंखों से जो हमें दिखाया वो अद्भुत है। वैसे ये
अब बच्चे नहीं रहे लेकिन जवाहर कला केन्द्र में सब इन्हें बच्चे ही कह रहे थे ये शायद
हमारे समाज का इस तरह के बच्चों को प्यार करने का अंदाज है। खैर! ये हैं पश्चिम बंगाल
के अलग-अलग शहरों से आकर कोलकाता में रह रहे अजन शरेन, मिलन शर्मा, फणि पॉल, दुलाल
चंद रॉय और टिंकू हज़रा। इन्हें ये मौका दिया है जयपुर के ही चंदन राठौर और पद्मजा शर्मा
ने। आवाज की दिशा से ये अपना फ्रेम तय करते हैं और फिर जो भी फोटो इनके फ्रेम में जकड़ती
है वो कमाल की होती है। इनकी हर खींची गई फोटो अपने आप में कहानी है जिससे हर किसी
को प्रेरणा लेनी चाहिए।
मैं अब तक एक सुखद आश्चर्य से भरा हुआ हूं और इनकी तस्वीरें दिमाग में
जाकर छप सी गई हैं। मैं नहीं जानता कि ये ऐसा कैसे कर लेते हैं।
मैंने अपना फोटो खींचने की रिक्वेस्ट की तो अजन ने अपना कैमरा अपनी आंखों
से ऐसे चिपका लिया मानो इसे लेंस में सब दिख ही रहा हो हां उसे सब दिख रहा था कैमरे
की आंखों से। हालांकि वो फोटो अजन के कैमरे में ही है लेकिन उनकी खींची फोटो
मेरे पास है।
ये सब देखने के बाद इतना मन में जरूर आया कि क्या कभी ऐसे स्टूडेंट्स के
भविष्य के लिए कोई इस तरह की बहस होगी जैसे इस देश में गाय,बीफ, देशभक्ति और देशद्रोह
पर हो रही है? क्या इनके लिए भी कभी जिंदाबाद-मुर्दाबाद के नारे लगेंगे? क्या हर नेता
इनके अच्छे-बुरे के लिए कोई बयान देगा? जिस जगह इनके फोटो की प्रदर्शनी लगी थी उस जगह इनके
लिए रैम्प भी नहीं हैं और हां ये वही जगह है जहां से कुछ दिन पहले ही गाय की कलाकृति वाली खबर नेशनल न्यूज बनी थी।
पर मुझे लगता नहीं क्योंकि जब हम राजनीति के एक ऐसे दौर से गुजर रहे हों
जहां सब प्रोपेगेंडा हो, पक्षपाती सोची-समझी रणनीति और बहकावे में आकर राजनीति की जा
रही हो, जानबूझकर फैलाई गई लड़ाई में सरकारें सीधे दखल दे रही हों और हर उस घटना को
थोड़ी समझ रखने वाले लोग भी समझ ना पा रहे हों कि मामला आखिर है क्या? मीडिया के लिए
वो बात जिससे मास का मतलब ही नहीं वो देश का सबसे बड़े मुद्दा हो। ऐसे समय में मेरे
ये सवाल बेवकूफों वाले ही कहे जाएंगे।
बेहद खूबसूरत छायाचित्र... निशब्द हूँ तारीफ़ करने के लिए ! बस इतना कहूँगी...ये वो प्रतिभा है जिसे इन्द्रियों की ज़रुरत नहीं है... बेहद संवेदनशील लेख !
ReplyDeleteहां ये बात ही है मुझे अब तक यकीन ही नहीं हो रहा कि लोग किस-किस कमी को अपनी मजबूती बना लेते हैं। ये होता है चैलेंज दुनिया को।
ReplyDeleteबहुत मार्मिक रपट
ReplyDeleteबहुत मार्मिक रपट
ReplyDeleteThank you bhaiya
DeleteWow..
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