हो सकता है आपके लिए ये सामान्य बात हो, हो सकता है कि ये आपके गैर जरूरी हो। एक बदलाव नज़र आ रहा है। एक शुरूआत हुई है उम्मीदों भरी। उम्मीद एक निहायत ही गैरजरूरी रीति के टूटने की, उम्मीद एक आजाद ख़्याल समाज के बनने की, उम्मीद अपने से छोटों यानी बेटों खासकर बेटियों की बात और पसंद को तवज्जो देने की और उम्मीद एक ऐसे समाज के उच्च वर्ग के लोगों की सोच बदलने की जो कुछ साल पहले तक लड़की ही नहीं लड़कों के जींस पहनने पर भी रोक लगाती थी।
मैं मेरे घटिया से शहर में तब्दील होते हुए गांव से निकली इस उम्मीद को सच होते हुए देख पा रहा हूं। सुनकर अच्छा लगता है कि हमारी पीढ़ी के बच्चे जिनमें ज्यादातर का बचपन परिवार के बड़ों से अजीब डर में निकला वो इस उम्र पर आकर अपनी पसंद खुलकर उसी परिवार के सामने रख रहे हैं और परिवार भी बिना झगड़े, बिना ज्यादा नाक-नक्श लगाए उन रिश्तों को अपना रहे हैं। यह भले ही शुरूआत भर हो लेकिन जिस सामाजिक चौहद्दी में मेरा गांव और उसके संभ्रांत परिवार आते हैं वहां इस शुरूआत को उनकी कामयाबी कहने को मन कर रहा है जो प्रेम में यकीन रखते हैं। कुछ हो या न हो लेकिन इस शुरूआत से दहेज के लिए जो रेट लिस्ट बनीं हैं गांवों में वो कुछ हद तक काबू में होगी, रेट लिस्ट काबू में होगी तो कम से कम लड़की वालों को राहत तो मिलेगी ही वरना जैसे ही कोई रिश्ता लेकर आता है चौराहे पर बैठे फालतू के पटेल ही ‘वहां तो डिमांड है’ कहकर ही उसे टरका देते हैं। दूसरा फायदा उन बिचौलियों से होगा जो अपनी जिंदगी का सबसे बड़ा टास्क किसी की लड़की को अपने नातेदार-रिश्तेदार के लड़के को दिला देना मान लेते हैं वो भी सबसे कम रेट में।
ये अच्छा ऐसे भी है कि ऐसे खुलेपन के माहौल में हमारे पहले की पीढ़ी को खुलकर बात करने और वो शब्द इस्तेमाल करने का मौका मिल जाता है जिन्हें वो अपनी जवानी के दिनों में शायद नहीं ले सकते थे, हैरत हो सकती है लेकिन हमारे यहां की सामाजिक बनावट में लव शब्द मेरे बचपन तक बहुत आसानी से नहीं लिया जा सकता था लेकिन अब जब ये दीवारें टूटने लगी हैं तो मेरे पिता जैसी उम्र के लोग अपनी उम्र के लोगों से यह भी कह पा रहे हैं कि, ‘अच्छा आपके बच्चे को फलाने की बच्ची से ‘लव’ हो गया है’। ये उस समाज के लोगों के मुंह से निकला हुआ शब्द है जो अपनी लड़कियों को किसी से लव मैरिज कर लेने के बाद भी वापस ले आए और ‘इज्जत’ के नाम पर दूसरी शादी भी करवा दी, सबको पता भी चला लेकिन कोई बोला नहीं क्योंकि सबकी ‘इज्जतें’ इस तरह बच रही थीं। अब अच्छा लग रहा है कि लड़के या लड़की का पिता आकर कहता है, ‘फलाने अब का करें जमानौ बदलरौ ए, नईं करी तौ कछु कर बैठंगे’, बिना शर्तों का प्यार शादियों में भी बदल रहा है।
ये अहम इसलिए भी है कि मेरे साथ पढ़ी कई लड़कियों को पढ़ाई छुड़वा कर से सिर्फ इसलिए घर बिठा लिया क्योंकि उसने कोई बॉयफ्रेंड बना लिया या वो किसी लड़के के साथ सिर्फ आइसक्रीम खाते हुए दिख गई थी।
खैर! बहुत अच्छा लग रहा है हमारे आसपास कुछ तो बदल रहा है और ये बदलाव शहर ही नहीं गांवों में भी पहुंच रहा है। उम्मीद है इस शुरूआत का फैलाव बढ़ेगा, प्यार बढ़ेगा तभी समाज निखरेगा।
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