Saturday 14 October 2017

फोहे जैसे गुलज़ार...

ये दोपहर भी ऐसी थी मानो थार में कोई रेत का बबंडर उठ कर शांत हो गया हो। हम सब उस मेमने की तरह थे जो उस शांति को जीने के लिए एक झोंपड़ी में बंद हो गया था। शाम हुई लेकिन बड़ी अलसाई सी। कुछ नमी के साथ लेकिन इस शाम में इंतज़ार बहुत था। तभी सुना कि गुलज़ार हो गई है, लेकिन क्या? शाम या ये सड़कों पर तैरती रात? नहीं, वही रात जो हर रात नहीं होती इस शहर में। सच में गुलज़ार आए हैं, अपने गुरु केदारनाथ सिंह के साथ। सफेद झक कुर्ते में , मानो हाथ लगाया तो काट देगा ये कुर्ता, ये कहता हुआ, सावधान छुआ तो।

आवाज़ में पहाड़ सी कशिश और नदी सी गहराई लिए हुए ये सफेद मूछों वाला आदमी खुद चांद क्यों नहीं हो जाता? कहता है, चांद पे मेरा कॉपी राइट है। वो भी ऐसा कि आप उसे बहरूपिया तक कह देता है।
अब थोड़ा हिमालय से बूढ़े लेकिन उतने ही नए पहाड़ जैसे केदारनाथ सिंह को देखिए। गुलज़ार मीठा-खट्टा सा मुरब्बा हैं तो केदारनाथ उस मुरब्बे को समेटे, ढंके मर्तबान। 'उसका हाथ अपने हाथ में लेते हुए मैंने सोचा दुनिया को हाथ की तरह गर्म और सुंदर होना चाहिए'। हाय! ये गुरु ऐसा है तो चेला क्या होगा। होगा नहीं, है जिसने चांद को खरीदा हुआ है, अपनी नज़्मों से, अपनी आवाज़ से। कभी उसे पहाड़ पे उतारता है तो कभी किसी फुटपाथ पर उतार लाता है। कभी-कभी क्यों लगता है कि गुलज़ार से चांद है या चांद से गुलज़ार? नासा की कोई रिपोर्ट नहीं आई क्या कभी इस पर? और ये कैसा गुरु है जिसे हम युवाओं की इतनी भी फ़िक्र नहीं है कि अपनी ये दो लाइन की कविता की तारीख हमें बता सके। 
जब कवि की रचना उसके नाम से आगे निकल जाए तो वो कवि मुकम्मल हो जाता है, चेले ने ऐसा कहा। शायद गुरु ने इसे बहुत सीरियसली ले लिया, बचपने में लिख दी दी गई ये बहुतों की जवानी सुंदर बना रही है, नूर मियां के केदारनाथ सिंह। 
इस गुलज़ार रात को यूं खामोश कर के चल दिए आप दोनों बूढ़े। इस छोड़ी हुई रात का हम क्या करें? ओढ़ कर सो जाएं या सोते हुए आपके पहाड़ पर उतरे चांद को निहारते रहें, फोहे जैसे गुलज़ार....

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