और भी दुख
हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और
भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
मुझ से पहली
सी मोहब्बत मिरी महबूब न मांग
अगर कोई
परीक्षा में पूछ लेता तो तुक्का मार आता कि फैज़ साब का लिखा होगा, लेकिन अगर
पूछ लिया जाता कि किस फिल्म में ये नज़्म इस्तेमाल हुई है तो पक्का ये सवाल छोड़
आता। अभी यूं ही पाकिस्तानी ओल्ड फिल्मी सॉन्ग यू-ट्यूब पर सर्च कर लिया है।
पिटारा खुल गया है गानों का जिन्हें हम आज भी गुनगुनाते हैं या कहीं चल रहे होते
हैं तो बुदबुदाने लग जाते हैं बिना जाने कि पाकिस्तानी फिल्मी गाने हैं। (वैसे
फर्क क्या पड़ता है) फिल्मों से ज्यादा इन गानों ने इनके लिखने वालों और गाने
वालों ने हम भारतीयों को जोड़ा है। मेंहदी हसन, नूरजहां, फैज़ साब, माला...
बांट रहा था
जब ख़ुदा, सारे जहां की नेमतें...
अपने ख़ुदा
से मांग ली, मैंने तेरी वफा सनम...
इसे सुनील
शेट्टी की फिल्म बड़े दिलवाला में मत सुनिए। मेंहदी हसन और नाहीद अख़्तर की आवाज
में 1978 में आई पाकिस्तानी फिल्म 'नज़राना' में कानों
पर हेडफोन लगाकर सुन डालिए। लगेगा कि कुर्सी के पीछे से कोई छुपकर आया
है और बालों में उंगलियां फेर कर वापस कहीं बादलों में छुप गया।
तेरे भीगे
बदन की खुशबू से, लहरें भी हुई मस्तानी सी
तेरी ज़ुल्फ
को छूकर आज हुई खामोश हवा दीवानी सी...
ये रूप का
कुंदन दहका हुआ,ये ज़िस्म का चंदन महका हुआ
इल्ज़ाम ना
देना फिर मुझको, हो जाए अगर नादानी सी...
मेंहदी हसन
के इस गाने पर आज आप हिंदी या उर्दु ज़ुबान की बहस छेड़ सकते हैं। आप छेड़िए
लेकिन ये पंखा समंदर सी हवा क्यूं देने लगा है? कुर्सी लहरों सी डोल क्यूं रही
है.... कमबख़्त आंखें बंद होकर सुस्ताना क्यूं चाह रही हैं?
आओ हम
आसमां-ए मोहब्बत में उड़ चलें
या प्यार की
जमीं के दिल में उतर चलें
कहते हैं इस
जहान से आगे भी है इक जहां
फिर क्यूं न
हम बनाएं वहीं चल के आशियां....
सूरज पे जा
बसें या किसी चांद पर चलें....
1985 में
बनी पाकिस्तानी फिल्म महक का ये गाना ऐसा क्यूं लग रहा है कि पाकीजा में ‘चलो दिलदार चलो चांद के पार चलो’ का नेक्स्ट वर्जन है। कैफ़ी आज़मी,
मजरूह सुल्तानपुरी और कमाल अमरोही चांद के पार जाने की बात कह रहे हैं। पाकिस्तान
के लेखक वहां रहने की बात कर रहे हैं।
मेरे लिए दोनों ही स्थिति अच्छी हैं। कुछ रह लेंगे, कुछ पार चले जाएंगे, लेकिन क्या 85 के बाद से हम पिछड़ गए हैं? आज बस इधर-उधर भेज दिए जाने की
बात कर रहे हैं, न कोई पार जाना चाह रहा है और न कोई सूरज-चांद पर रहने की बात
छेड़ रहा है।
ख़ैर! बारिश का मौसम है। बालकनी में
हाथों में चाय की प्याली लीजिए और माला का ये गाना सुनकर चहक लीजिए।
कोई मेरे
दिल में
धीरे-धीरे
आके निंदिया चुराये
मुझे
छेड़-छेड़ मेरे दिल को दीवाना बनाये.....
शाम ढल कर
रात बन गई है। मेरे घर के सामने पाखर के पेड़ के पत्ते खड़खड़ा रहे हैं मानो किसी
के आने की सूचना दे रहे हों। बारिश इस किसी के आने को और पुख़्ता कर रही है।
खिड़की के शीशे से बूंद झर-झर गिर रही हैं। सड़क पर बह रहा पानी दरिया सा महसूस हो
रहा है। रात की रोशनी इस दरिया को झेलम सा बना रही है। दरिया के सामने वाले घर
पाकिस्तान लग रहे हैं और उधर से आवाज़ आ रही है...
काटे ना कटे
रे.... रतियां सैंया इंतज़ार में....
अय हय मैं
तो मर गई बेदर्दी तेरे प्यार में
काटे ना कटे
रे....
ये नूरजहां
को किसी ने बंटवारे के वक्त हिंदुस्तान में ही रहने के लिए नहीं बोला था क्या? दे देते तो क्या हो जाता?
माने ना
बैरी बलमा ओ...मेरा मन तड़पाए...जियरा जलाये....
...और ये कोई
नाहीद अख़्तर हैं। बस सुनते जाने का मन कर रहा है। लग रहा है मेरे कानों में आकर गा
रही हैं।
ऐसे मौसम
में चुप क्यूं हो, कानों में रस घोलो
होठ अगर
ख़ामोश हैं सज़ना, आंखों ही से बोलो..
करने लगी है
ठंडी हवाएं फूलों से आंख मचौली
अपने साथ
बहारें लाईं सावन रुत की डोली
खिल गई सारे
बाग की कलियां अब तो ये लब खोलो
आओ इतनी दूर
चले हम, देख ना पाये ज़माना
नील गगन
पीछे रह जाए, पाए ना अपना ठिकाना
मैं छुप जाऊंगी
आंखों में तुम पलकें तो खोलो...
हाय....कमबख़्त
वो बंटवारा...कमज़र्फ ये यू-ट्यूब.....
No comments:
Post a Comment