Tuesday 6 January 2015

बिस्मिल्लाह की शहनाई भजन भी गाती थी...

1. मुश्ताक भाई गणेश जी को निमंत्रण देने जाएंगे तो गणेशजी क्यों नहीं आएंगे। मुश्ताक ने गाना गाकर कहा, देखो गणेश मुझे पूजा-पाठ नहीं आता पर मेरी नाक का सवाल है, भरे राजदरबार में मैं आपको बुलाने की बात कह कर आया हूं और मुश्ताक जीमण (सामूहिक भोज) का न्योता गणेशजी के पैरों में रखकर आ जाता है। गणेशजी ने मुश्ताक भाई का न्योता स्वीकार किया और जयपुर राजघराने की ओर से आयोजित जीमण में इंसान के भेष में आ गए। फिर पृथ्वी पर शुरू हुई इंसान का भगवान को ना समझ पाने की नादानी। बहुत देर से पंक्ति में लगा व्यक्ति पूछता है, भइया खाना चालू करो। पंडित जी की आवाज़ आती है अभी गणेश जी को भोग लग रहा है। पंक्ति में आगे-आगे लगे गणेश जी के साथ आए नारद बोलते हैं, गणेश जी तो मेरे साथ में हैं, पंडित जी तिरस्कार की नज़रों से नारद को देखते हैं और शायद सोचते हैं कोई मूर्ख है। तभी एक चतुर आदमी पहले जीमने के लालच में दोनों को पंक्ति में पीछे ढकेल देता है।
2. 20 दिसम्बर 2014 की सर्द शाम। जयपुर में ही छन्नू लाल मिश्र की भजन संध्या। मतलब पीके फिल्म की रिलीज के ठीक दूसरे दिन। छन्नू जी भजन ही गा रहे थे। तमाम तरह के रागों को ऐसे समझा रहे थे मानो सेन्ट्रल पार्क में बैठे सभी श्रोता उनके शिष्य हों। लोग भी आनंद ले रहे थे। सर्दी का अहसास हो रहा था तो तब जब वे थोड़ी देर के लिए रुकते। भजन गाते-गाते अचानक बोले, आपने बिस्मिलाह ख़ान को शहनाई बजाते सुना था क्या कभी? कुछेक हाथ उठे। छन्नू जी बोले, वो शहनाई से जो धुन निकालते थे, मैं गाकर सुनाता हूं। फिर बिस्मिलाह की शहनाई की धुनें भजन बनकर छन्नू जी के मुंह से निकलने लगीं।
पहला किस्सा शायद सही न हो लेकिन दूसरा एकदम सही है। पहला भले ही एक प्ले था मगर मुश्ताक के किरदार ने कितना बड़ा काम किया। इसी तरह छन्नू जी की बात को उस वक्त शायद ही लोग समझ पाए हों लेकिन उन्होंने अपने कलाकार होने का फर्ज़ अपना काम करते हुए निभा दिया। वो भी उस मुश्किल वक्त में जब धर्म की अनेक परिभाषाएं रची जा रही हों। मज़हब को केन्द्र में रखकर मॉक ड्रिल हो रही हों। धर्म को उसी राजनीति ने बहस का विषय बना दिया हो जिसे धर्म को राज्य से दूर रखने को कहा गया हो। उस समय में जब पैदा होते बच्चे भी नहीं बख्शे जा रहे। ऐसे काल में जब हम सब संगठनों के बनाए प्रोपेगेंडा में फंस चुकें हों, हर काम को उसी नज़रिए से दिखाया जा रहा हो और हम सब कुछ जानते समझते हुए भी कुछ न कर पाने की स्थिति में हों सिवाय फेसबुक पर लिखने के। उस वक्त कलाकार अपना काम कर रहा है। शायद यही कलाकार को करना भी चाहिए या यूं कहें सारी ‘कार’ बिरादरी को यही करना चाहिए जो मुस्ताक़ और जो छन्नू जी ने किया। मज़हब की दीवार किसी अर्जुन के दीवार पर निबंध सुनाने से नहीं टूटने वाली क्योंकि इस दीवार को बनाने वालों ने सिर्फ भावनाओं का इस्तेमाल किया है और कोई भावनाओं के बारे में भला कलाकार से ज्यादा कौन समझ पाता है।

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