पीके आज सुबह तुम्हारी फिल्म देखी। अच्छी थी। पर इससे पहले शनिवार शाम के एक वाकये का ज़िक्र कर दूं। जयपुर की सर्द शाम पंडित छन्नू लाल मिश्र की ठुमरी , दादरा और भजनों से सराबोर हो रही थी। माहौल अध्यात्मिक हो रहा था। पंडित जी एक ही भजन को अलग-अलग रागों में कई-कई तरह से गा रहे थे। दर्शक उनके और तबले की जुगलबंदी पर जमकर तालीयां बजा रहे थे। आपको लाइव सुनने की चाहत थी इसलिए मैं भी वहीं था। तभी भजन गाते-गाते मिश्र रुके और बोले, क्या आपने उस्ताद ‘बिस्मिलाह खान’ को शहनाई बजाते हुए सुना है? ज्यादातर दर्शकों ने हां में सिर हिला दिया। फिर बोले, वो जो शहनाई बजाते थे, मैं उसे गाकर सुनाता हूं। फिर खान की शहनाई की धुन पंडितजी के सुर में भजन बनकर निकलने लगी। तभी लगा कि नहीं सब कुछ लुल्ल नहीं है। कुछ ‘कार’ बिरादरी है जो अभी हमें बचाकर रख सकती है। ये इस दुनिया में सिर्फ जूता ही नहीं रहने देगी। ये किसी रॉन्ग नंबर को भी बीच में नहीं आने देगी। हां, ज्यादातर इस रॉन्ग नंबर का शिकार बन चुके हैं पर सभी नहीं।
देखो! पीके हमारे गोले पर सब कुछ लुल्ल नहीं है... सभी नहीं बने इसलिए रामपाल का किला ढह गया, आसाराम का भी खाक हो गया और तुम्हारी रिलीज डेट के दिन ही एक ने सुपरमैन अवतार में आकर खुद ही अपने दरवाजे खोल दिए। जितने भी राम थे, हैं या वो जो राम के नाम पर कुछ भी कर रहे हैं, सब खाक हो जाएंगे या हो रहे हैं, क्योंकि राम भी नहीं चाहते कोई रॉन्ग नंबर हमारे और उनके बीच में आए। खैर! तुम इस गोले पर ऐसे माहौल में आए हो जब यहां सिर्फ जूता रह जाने की कोशिश पैदा की जा रही है। सब अपने अंतर्विरोधों में फंसे हुए हैं। तुम ऐसे वक्त में नंगे होकर आए जहां हम सब कपड़े पहने हुए भी नंगे ही खड़े हैं। पर फिर भी उम्मीद तो रखनी ही चाहिए जैसे तुमने रखी थी। उम्मीद तो रखनी ही चाहिए ताकि हर जग्गू, सरफ़राज से मिल सके। उम्मीद तो रखनी ही चाहिए कि हम सब कभी तो कपड़ों के ऊपर के नंगपन को पहचानेंगे। उम्मीद इसलिए भी रखनी चाहिए कि कई सौ सालों पहले बनाए गए इस रॉन्ग नंबर के नेटवर्क से एक दिन में पीछा नहीं छूट सकता। क्योंकि तुम भी इस नेटवर्क में पहले फंसे थे फिर निकल आए, ऐसे ही हम भी निकल आएंगे बशर्ते कोई पीके इन्हें हमें हमारे अंतर्विरोधों से निकालने आ जाए। क्योंकि हम रॉन्ग नंबर को ही राइट नंबर मान चुके हैं। इसलिए उम्मीद है क्योंकि हमारे गोले पर सब कुछ लुल्ल नहीं है पीके...
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