Wednesday 4 March 2015

इसलिए मेरे ब्लॉग का नाम 'मेरी बाख़र' है...

एक शब्द आपको भूत में ले जाकर उस पूरे समय की यात्रा कराने की बहुत बड़ी ताकत अपने पास रखता है। ठीक उसी तरह जैसे बाख़र शब्द ने मुझे करा दी। कई दिनों से एक अच्छे शब्द की तलाश में था जिसे अपने ब्लॉग का नाम दे सकूं लेकिन सोचने से कहां शब्द आते हैं ये तो अचानक ही आपकी स्मृति में आते हैं और अपने साथ लेकर चले जाते हैं। दरअसल, इस शब्द को मैंने जीया नहीं लेकिन इसमें पूरी एक संस्कृति बसी हुई है। इंसान को इंसान के साथ रखने की हमारे बुजुर्गों की चतुराई भरी रचना है ये बाख़र शब्द। हो सकता है अलग-अलग इलाकों में इसका नाम अलग-अलग हो लेकिन देश के हर इलाके में चलता जरूर है।

बाख़र का मतलब सीधे समझें तो घर होता है, लेकिन मैं इसे दूसरे तरीके से समझने की कोशिश करता हूं कि आखिर इस शब्द को क्यों जन्म दिया गया होगा और इस शब्द को गढ़ने के पीछे वो कौनसे विचार थे?

खैर! हमारा जन्म तो ईंट-पत्थरों के बने पक्के घरों में हुआ लेकिन पिताजी तक की पीढ़ी कच्चे घरों में ही जन्मी। गोबर से लिपी दीवारें और छत पत्थर के बड़े-बड़े चौकों से बनी जिनका दोनों और ढलान होती थी। जिन्हें पाटौर कहते हैं। काफी एरिया में फैले इन घरों की खासियत थी कि इनमें कोई एक परिवार नहीं रहता था। रहते थे सारे खानदान के लोग। एक बाख़र मतलब बड़े-बड़े 8-10 कच्चे कमरे। जिसमें कम से कम 4-5 परिवार। मतलब एक परिवार के पास 2 कमरे। लेकिन ये वैसे ही रहते थे जैसे आजकल फिल्मों में भारत-पाकिस्तान के अलग होने से पहले हिन्दु-मुसलमानों के प्यार से रहने को दिखाया जाता है। चौकोर या गोलाई में बने कमरों के बीचों-बीच बड़ा सा आंगन जिसमें हर परिवार के अपने कमरे के आगे चूल्हे रखे होते थे। हर परिवार 5 तरह की सब्जियों से खाना खाता था। एक परिवार में एक ही सब्जी बनने के बावजूद। खुले में किचन होने का फायदा शायद यह होता होगा कि घर की औरतें खाना बनाते-बनाते गप्पें भी मार लिया करती होंगी।

 शाम की महफिल इन बाख़रों के आगे बने चबूतरों पर सजा करती थी। मैं उन बच्चों में से था जिनका परिवार इन बाख़रों से निकलकर पक्के घरों में बस चुका था लेकिन बाख़र वालों के ठीक सामने ही। इस तरह हम पक्के मकानों की छतों से उन चबूतरों पर सजी महफिलों को देखा करते थे। सर्दियों में अलाव पर बैठ कर बुजुर्गों की देश के लिए चिंताएं, राजनीति से नाउम्मीदगी और फिर लौट-फिर कर अपने खेतों पर लौट आना धुंधला-धुंधला सा याद है।
फिर सब बाख़र में बने कमरों की ओर लौट जाते।

कुलमिलाकर बाख़र एक ऐसी जगह हुआ करती थी जहां अलग-अलग विचारों के बावजूद सब लोग प्यार से एक साथ रहते थे। लेकिन एक दिन एेसा आया जब सबके पक्के घर बन चुके थे, सब उनमें से निकलकर अपने पैसे का प्रदर्शन करने लगे और उन खाली पड़ी बाख़रों के खंडहर बन चुके कमरों के पीछे उन लोगों की संतानें आपस में लड़ने लगीं। लड़ाई इसलिए हुई क्योंकि बुजुर्गों ने यह सोचकर उन्हें नहीं बनाया कि कल अगर लड़ाई-झगड़े भी हुए तो रास्ते भी अलग-अलग होने चाहिए।
उन बुजुर्गों की संतानें उन खंडहर में भी हिस्सा लेने पहुंच गई हैं। लड़ाइयां रुक नहीं रहीं क्योंकि एक बाख़र के अब मालिक कई हैं औऱ रास्ता सिर्फ एक। वो आंगन में रखे वो टूटे हुए चूल्हे उन लड़ाइयों के गवाह बन रहे हैं।

 बाख़र से निकलकर पक्के घरों में पहुंचे लोग अब एक ही खानदान के होने के बावजूद एक-दूसरे से बात नहीं करते, शादी-ब्याह में आना-जाना नहीं है। अब हर घर में अलग अलाव जलता है और वो एक ही सब्जी से खाना खाते हैं। लेकिन मेरा मन करता है कि वो एक ही अलाव फिर से जले, एक सब्जी बनने के बाद भी मैं 5 सब्जियों से खाना खाऊं। शायद उस हकीकत में पहुंचना अब असंभव है तो मैंने सोचा क्यों ना एक बाख़र यहां बसा ली जाए। प्रग्रेसिव होते हुए भी हम पहले जैसे रहें, बाख़र वालों की तरह। कम से कम फीलगुड तो रहेगा। 'मेरी बाख़र' एेसी हो जहां सिर्फ प्यार हो, प्यार का अलाव हो और वही अलाव वाली प्यारी-प्यारी बातें और बहसें। 

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