Monday 22 June 2015

इसलिए मैं पीछे मुड़ कर नहीं देखता मां

मन तो करता है कि बाइक पर बैठे-बैठे ही पीछे मुड़कर एक बार तो देख ही लूं लेकिन कभी हिम्मत नहीं जुटा पाता। मुझे पता है पीछे वही होगा जो मैं नहीं देखना चाहता। गेट पर लटकते दो चेहरे जिनमें से पक्का एक तो साड़ी से अपनी आंखें पोंछ रही होगी और दूसरी अजीब सा चेहरा बना कर लौट चुकी होगी। जब-जब घर से वापस आने के लिए बाइक पर पीछे बैठता हूं, टायर से कच्ची जमीं पर बनने वाले निशां की तरह बहुत कुछ पीछे छुटता जाता है और वो निशान अगली बार घर आने तक बने ही रहते हैं।

घर से बस स्टैण्ड तक के बमुश्किल 5 मिनट के उस सफर में जी जा चुकी उम्र को तय कर जाता हूं फिर कोर पर आई बूंद को चश्मे में छुपाने की उस कड़ी परीक्षा में हर बार सफल भी हो जाता हूं, लेकिन इस सफलता का कभी जश्न मनाने का मन नहीं करता। बस में बैठने के बाद भी खिड़की से उन्हीं मकान, दुकान और सड़क को देखता हूं जिन्हें बचपन से देखता आ रहा हूं पर ये कभी बोर नहीं करते जैसे जयपुर की अब हर एक चीज करती है। सब पीछे छूटता जाता है और मैं आगे बढ़ता हुआ भी खुश हो रहा होता हूं कि कितना पीछे जा रहा हूं।



मुझे पता है मेरे आने के बाद मां की ये शिकायत रहती ही है कि मैं कभी पीछे मुड़कर नहीं देखता, मन करता है मां पर हिम्मत नहीं होती। अगर पीछे देखूंगा तो फिर बहुत पीछे की यात्रा पर निकल जाने का मन होने लगता है। शाम तक के खाने के लिए तुम्हारे बनाए पराठे और उनके बीच रखे अचार की खुशबू से वो यात्रा शुरू होगी तो पता नहीं कहां जाकर रुकेगी। गर्मी में बिजली के ना आने पर साड़ी के पल्लू से की गई वो हवा उस यात्रा को और आरामदायक बना देगी। उसी यात्रा के दौरान सिर्फ मेरे लिए फ्रिज में रखे गए उस मक्खन को मैं उन पराठों से चट कर जाऊंगा और तुम धीरे से पापा की तरफ इशारा कर के हंसोगी, हंसते हुए असली घी-दूध की ताकत का मुझे अहसास भी कराया जाएगा, इस ताने के साथ कि क्या रखा है 'तुम्हारे' शहरों में मिलावटी सामान के अलावा? साथ ही कहा जा रहा होगा कि मेरे पास 15 दिन रुक जा, 5 किलो वजन ना बढ़ जाए तो....।

उसी यात्रा में अगर किसी शाम घर से बाहर निकल जाऊंगा तो उसी मोहल्ले में पहुचूंगा जहां चलना सीखा था, उस घर में जाने का शौक कतई नहीं है पर उसकी छत पर बैठकर अपने बचपन को नजदीक से देख पाने की तलब वहां लेकर पहुंच जाती है। घूम-फिर कर वापस उसी जगह पहुंचूगा जहां से यात्रा शुरू हुई थी यानी घर और फिर तुम कह रही होंगी कि कहीं जाता ही नहीं, घर में ही पड़ा रहता है। पर मैं घर में पड़े रहने के लिए ही तो घर आता हूं ताकि उस पूरी यात्रा से बच सकूं जिस पर निकलने के बाद थोड़ी खुशी और दुख ज्यादा होता है। दुख ये नहीं कि वो खुशी के पल जो हमने यहां जिए हैं वो कम हैं या कम रहे, दुख होता है कि हम उस 'बेहतर भविष्य' के लिए एक सुंदर वर्तमान को विदा कह देते हैं जिसे हम पूरा जी भी नहीं पाते।

हम प्रवासी लोगों के साथ यही एक दिक्कत है घर,गांव का नाम आते ही हम भावुक हो एक अनजानी सी यात्रा पर निकल जाते हैं। बाइक पर 5 मिनट के फासले में भी एक यात्रा लगभग पूरी हो जाती है और पीछे मुड़कर देखने में उस यात्रा के बहुत लंबे होने का खतरा पैदा हो जाता है, इसलिए मैं घर से लौटते वक्त पीछे मुड़ कर नहीं देखता मां।

3 comments:

  1. kya ye sch hai?? ha ye hi sch hai.

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  2. kya kahne apke बाख़र के !! बेमिसाल.

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