Tuesday 29 March 2016

कविता 4 : सड़क



शहर की चमचमाती हुई काली-काली सड़कें
मेरे गांव जैसे सूदूर में फैली लंबी-लंबी पगडंडियां
काली सड़कों पर दौड़ती बड़ी-बड़ी गाड़ियों पर
कभी-कभी दिख जाती हैं बैलगाड़ी और ऊंटगाड़ियां
तब लगता है सूदूर की पगडंडी बस गई है आकर शहर की किसी सड़क पर
हल्की सी धूल पगडंडी पर बनते गुबार सी लगती है
वाहनों का शोर गाय के रंभाने सा लगता है और गाड़ियों के हॉर्न बैल के गले में बंधे घंुघरू से
तभी तो सच है कि हर शहर में एक गांव बसता है ठीक शहर में बिछी किसी सड़क की तरह.

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