Monday 6 November 2017

सुरों की परवरिश में रात भर रहा चांद, सुबह के सूरज से विदाई

इस शाम की तासीर कुछ अलग ही होती है। मखमली सी, थोड़ी विनम्र, थोड़ी  त्योहारी और थोड़ी ऐसी जैसे सब थोड़ा-थोड़ा कर किसी चीज को पूरा करने की कोशिश कर रहे हैं। बीते शनिवार की रात भी ऐसी ही थी। रोजाना जीने के बाद भी जो थोड़ा जीने से छूट जाता है उसे अपने अंदर समा लेने के लिए सैंकड़ों लोग इस रात जवाहर कला केन्द्र के ओपन थियेटर में जमा हो जाते हैं। मुझे पता है इसमें ‘थोड़ा-थोड़ा’ थोड़ा ज्यादा हो गया लेकिन ये उस ज्यादा से कम है जो सुबह तक हमारे अंदर जमा हो जाता है। 
वही रात के 10 बजे हैं, लोग वैसे ही मसनदों पर पीठ टिकाकर आधे बैठे और आधे लेट गए हैं। कार्यक्रम है ‘राग’ जो रातभर क्लासिकल म्यूजिक की धुनों से सजा होता है। इस बार भी आसमान में अकेला चांद है। लग रहा है जैसे आसमान के सारे परदे हटा कर सब कुछ देख लेना चाहता है। हम सब के बीच में शायद चांद ही है जो आज अपने आप में पूरा है लेकिन फिर भी मौजूद है, पता नहीं क्यों? जब मैं यहां पहुंचा तो मंच पर पद्मविभूषण हरिप्रसाद चौरसिया अधरों पर बांसुरी सजाए बैठे थे और हवा में महात्मा गांधी का फेवरेट भजन वैष्णव जन तैर रहा है। मैं सोच रहा था अगर गांधीजी यहां होते तो चौरसिया जी को क्या बोलते? हालांकि इनकी तबीयत थोड़ी नासाज़ है लेकिन अपनी बांसुरी से वह न जाने कितनों की तबीयत खुश कर रहे हैं। किसी कलाकार का समाज में सबसे बड़ा योगदान शायद यही होता है कि उसका जो भी होता है वह सबका होता है। चूंकि शनिवार का दिन दीप दिवाली, गुरूनानक पर्व का भी था तो माहौल में अपने आप त्योहारी रंगत है।

दैनिक भास्कर जयपुर 07-11-2017
4 नवंबर रात से शुरू हुई सुरों की शाम 5 नवंबर में बदल गई है लेकिन लोग वैसे ही बैठे हैं। चौरसिया जी के बाद लेडी जाकिर हुसैन कही जाने वाली अनुराधा पॉल मंच पर आती हैं। मां का बेटी को नींद से  जगाना, राम जन्म से लेकर रावण वध, राम का अयोध्या लौटना और लौटने पर घी के जलते दीए सब कुछ तबले की थाप पर देखा जब इन्होंने तबला बजाया। क्योंकि तबले की थाप पर ही यह सब हुआ। इस दौरान एक हैरत वाली बात भी हुई। पॉल ने जब रात के 1.30 बजे मंदिर की घंटियां और शंख की आवाज तबले पर निकाली तो आसमान में कई पंछी चहचहाते हुए ऊपर मंडराने लगे। शायद शंख और घंटियों की आवाज से कन्फ्यूज हो गए। पंछी कुछ देर बाद चले गए और 3 बजते ही मंच पर अश्विनी भेड़े और संजीव अभयंकर आ गए। पं. जसराज के बनाए जसरंगी जुगलबंदी में कितहूं छिप गए कृष्ण मुरारी... को सबके साथ ढूंढ़ते हैं। अब किसे मिले ये मैं नहीं जानता। सुबह के पौने पांच बजने को हैं। रात को जो चांद हमारे सिर के ऊपर अकेला खड़ा था, अब वहां भोर की रोशनी, पंछियों की चहचाहट भी साथ आ गई है। पंडित जी ने हे गोविंदा...हे गोपाल से शुरू किया। खत्म होने पर ऑडियंश ने फरमाइश की मेरो अल्लाह मेहरबान की। पंडित जी बोले, अल्लाह तो सबका है लेकिन गाऊंगा मेरो अल्लाह। मेरा मानना है कि पं. जसराज की आवाज में ये गाना हर उस इंसान को सुनना चाहिए जो हर बात में हिंदू-मुसलमान वाले टॉपिक पर एक-दूसरे को मारने-काटने वाली बातें करने लगते हैं। सुरों से सजी सुबह आ गई है और पंडित जी कह रहे हैं कि ये वाला (कार्यक्रम) थोड़ा ठीक रहा। इनके थोड़े से हम सब पूरे हो गए थे। अगली बार जब इनका कार्यक्रम ‘पूरा’ ठीक रहेगा तब तब हम सब फिर से ‘थोड़े’ खाली हो चुके होंगे ताकि फिर से कुछ भर सकें।
दैनिक भास्कर 13-11-2016

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