Tuesday 14 November 2017

दरारों की रोशनी

एक दरारों से भरा मिट्टी का घरोंदा है
जिसकी छत नहीं है
इस घरोंदे की चौहद्दी दो कदम बढ़ते ही खत्म हो जाती है
बाहर खड़े हैं दो नीम के पेड़ और जड़ हुए पति-पत्नी
इधर-उधर खेल रहे हैं कुछ मेमने और तीन बच्चे
गृहस्थी के नाम पर चार बासन और एक संदूक साथ में एक चूल्हा
ज़िन्दगी नीम की छायां में पड़ी मौत का इंतज़ार कर रही है
और मौत घर में पड़े 1 किलो गेहूं को देख ज़िन्दगी को प्यार से सहला रही है!
दुख, दरिद्रता, बीमारी सब कुछ तो है और क्या चाहिए बाबू फोटू के लिए?
मैं मोहब्बत और कुछ रोशनी ढूंढ रहा था!!!
यहां?
जहां मौत भी तसल्ली से आती है, अपना रुआब दिखलाकर...
नहीं ढूंढ पाओगे। क्योंकि
ये दूर शहर से यहां तक सड़कें इसलिये ही तो बिछाई हैं ताकि ये सब देख सको। देखो कुछ भी नहीं है सिवा 2 बकरी, चार भांडे और 5 जान के।
नहीं ऐसा हो तो नहीं सकता, मोहब्बत होगी तो जरूर!
देखो मुझे दिख गई।
इस माटी की बिखरी-चटकी सी दीवार पर जो तस्वीर टंगी है ना मालाराम के पिता की वही मोहब्बत है।
अच्छा और फिर रोशनी कहां है?
तस्वीर के ठीक नीचे आरे में सलीके से रखी दो किताबों को देखो तो ज़रा
मशाल से कम रोशनी नहीं है इनकी
वो दिन आएगा जब ये छत सिल जाएगी और मौत का अंधेरा इस रोशनी में फीका पड़ जाएगा... क्योंकि सदा नहीं रहेगा ये घरोंदा दरारों भरा।

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