हम सब ने अपनी चौहद्दियां बना ली हैं। आंगन में हमारे अब मोर नहीं आते और न हम मोरों को देखने अपनी चौखट के उस पार जाते हैं। क्या है उस पार जिसे देखने की हूक हमारे मन में नहीं उठती? क्यों हम सब इतने एकाकी हो गए हैं, क्यों हम अपने एकाकीपन वाले रवैये से अपने बच्चों को भी एकाकी बना रहे हैं? क्या करेगा कोई बच्चा जब उसे आप अकेला छोड़ देंगे और वह एक खिड़की के कोने में बैठ बाहर की दुनिया के लिए अपना नजरिया बना रहा होगा। क्या सच में खिड़की से दिख रहे पहाड़ के उस पार ऐसा कुछ होता है? क्या सच में खिड़की के नीचे हर रोज कोई दही वाला आता है, क्या सच में खिड़की की सामने वाली गली में कोई गले में घंटी बांधे आता है जो कहता है कि समय निकला जा रहा है और बच्चा बोले, समय रुका हुआ है तो निकल कर कहां जा रहा है? इतनी मासूमियत क्या हममें अभी भी बची हुई है? क्या हो जब हम सब एक कमरे में बंद हो जाएं और खुली हो सिर्फ एक खिड़की? उस खिड़की के सामने से गुजरने वाला हर किरदार तुमसे पूछने लगे, यहां क्यूं बैठे हो बच्चे?
ये दुनिया अब हम सबके लिए वो खिड़की हो गई है और इस खिड़की के सामने से गुजरने वाला हर किरदार हमारे लिए बेहद सामान्य। पहाड़ के उस तरफ बहती नदी की आवाजें हमारी स्मृति में नहीं है, क्यों कि पहाड़ को चीर कर हमने उसकी रोड़ी से घर चुन लिए हैं। क्या आपको अपने घर की दीवारों से पहाड़ के चीखने की आवाज़ें नहीं आती? उसके पार बहने वाली नदी हमारी आंखों की तरह सूखी नहीं दिखती? क्या हम सुर्ख नहीं हो गए हैं नदी के पाटों की तरह। क्यों नहीं हम कुछ दिन छुट्टी लेकर खिड़की फांद जाते। क्यों नहीं लखानी की स्लीपर पहने उस पहाड़ की तरफ नहीं चल पड़ते जिसे चढ़ना अब पहले से काफी आसान हो गया है? क्यों और कब तक हम एक खिड़की में ही बैठे-बैठे बीमार होते रहेगें इस इंतजार में कि किसी दिन राजा का राजवैद्य आएगा और हमारे घर के सारे पर्दे हटवा कर रात में खिली चांदनी और तारों की रोशनी दिखलाएगा, लेकिन क्या तब तक हम किसी गहरी नींद में नहीं सो चुके होगें बिलकुल टैगोर के डाकघर के उस बच्चे अमल की तरह....
ये दुनिया अब हम सबके लिए वो खिड़की हो गई है और इस खिड़की के सामने से गुजरने वाला हर किरदार हमारे लिए बेहद सामान्य। पहाड़ के उस तरफ बहती नदी की आवाजें हमारी स्मृति में नहीं है, क्यों कि पहाड़ को चीर कर हमने उसकी रोड़ी से घर चुन लिए हैं। क्या आपको अपने घर की दीवारों से पहाड़ के चीखने की आवाज़ें नहीं आती? उसके पार बहने वाली नदी हमारी आंखों की तरह सूखी नहीं दिखती? क्या हम सुर्ख नहीं हो गए हैं नदी के पाटों की तरह। क्यों नहीं हम कुछ दिन छुट्टी लेकर खिड़की फांद जाते। क्यों नहीं लखानी की स्लीपर पहने उस पहाड़ की तरफ नहीं चल पड़ते जिसे चढ़ना अब पहले से काफी आसान हो गया है? क्यों और कब तक हम एक खिड़की में ही बैठे-बैठे बीमार होते रहेगें इस इंतजार में कि किसी दिन राजा का राजवैद्य आएगा और हमारे घर के सारे पर्दे हटवा कर रात में खिली चांदनी और तारों की रोशनी दिखलाएगा, लेकिन क्या तब तक हम किसी गहरी नींद में नहीं सो चुके होगें बिलकुल टैगोर के डाकघर के उस बच्चे अमल की तरह....
Fan of your writings, madhav sir��
ReplyDeleteMany thanks ashwani bhai
ReplyDeleteU write very well. U should be on stage .
ReplyDeleteHahaha Thanks dear
DeleteAwesome Bhai
ReplyDeletethank you rahul
DeleteSabdo ki maala piro di madhav bhai tumne to ,bahut khub
ReplyDeleteShukriya sir
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