कुछ यादें हैं जो इस मीनार पर अटक गई हैं। यादें अटक-अटक कर लटक गई हैं पर मीनार वैसे ही खड़ी है जाने कितनों की यादों को लटकाए हुए। ऊपर से टकटकी लगाए देखते हुए बादल हैं तो नीचे उन यादों को बहाकर ले जाती नदी है। न जाने कहां-कहां से बहा कर ले आती है ये नदी इन यादों को।
नदी के बीचों-बीच खड़ी इस मीनार में बहती हुई यादें वेग में कहीं अटकी रह जाती हैं। मेरी भी अटक गई हैं इसी में कहीं। उनकी भी जो यहां आते हैं अपनों की अंतिम यात्रा में। अटकी यादों की जिम्मेदारी के बोढ से इसकी चोटी थोड़ी झुक सी गई है। मैं इस मीनार को इस जिम्मेदारी से मुक्त कर देना चाहता हूं लेकिन फिर सोचता हूं, एक यही तो काबिल है हम प्रवासियों की यादों को ढोने के, खुशनसीब भी जो हमारे पैदायशी जगहों में होने वाले बदलावों को देख रही है चुपचाप खड़े हुए। इसीलिए मैं इसे यादों और बदलावों की मीनार कहता हूं।
नदी के बीचों-बीच खड़ी इस मीनार में बहती हुई यादें वेग में कहीं अटकी रह जाती हैं। मेरी भी अटक गई हैं इसी में कहीं। उनकी भी जो यहां आते हैं अपनों की अंतिम यात्रा में। अटकी यादों की जिम्मेदारी के बोढ से इसकी चोटी थोड़ी झुक सी गई है। मैं इस मीनार को इस जिम्मेदारी से मुक्त कर देना चाहता हूं लेकिन फिर सोचता हूं, एक यही तो काबिल है हम प्रवासियों की यादों को ढोने के, खुशनसीब भी जो हमारे पैदायशी जगहों में होने वाले बदलावों को देख रही है चुपचाप खड़े हुए। इसीलिए मैं इसे यादों और बदलावों की मीनार कहता हूं।
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