Thursday 24 December 2015

कविता: तुम जानती ही हो क्यों?


थक सा जाता हूं रोज एक सा काम कर के
सुन्न सा हो जाता है दिमाग और पक जाता हूं आत्ममुग्धता से भरी लोगों की बातें सुनकर
कभी-कभी मैं भी हो जाता हूं शामिल उनमें
…और जब सब कुछ हो जाता है दिखना बंद
तब देखता हूं मोबाइल में संभाल कर रखी तुम्हारी तस्वीरों को
देखता हूं हर घंटे बदलते वाट्सएप स्टेटस और प्यारी-प्यारी डीपी
फिर एक हूक सी उठती है और मैं महसूस करने लगता हूं उन नर्म उंगलियों के स्पर्श को जो तुमने मेरे सिर में फेरी थीं उस रोज भरी जून की दोपहरी में
मन करता है फिर लेट जाऊं वैसे ही तुम्हारी गोद में और याद करूं उस अद्भुत अहसास को जो उस रोज हुआ
ताजा सा हो जाता हूं और फिर से लग जाता हूं उसी काम पर जिसे रोज करता हूं
नहीं होती फिर कोई थकान और अच्छी लगने लगती हैं लोगों की आत्ममुग्धता भरी बातें
उस अहसास को याद कर अच्छा लगता है और पिघल जाता है जमा हुआ सुन्न दिमाग
तुम जानती ही हो क्यों?

2 comments:

  1. वाह बहुत ख़ूब :)

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  2. वाह बहुत ख़ूब :)

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